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आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण'
द्वार/अध्ययन/ सूत्रांक इसी प्रकार के मनोज्ञ एवं सुहावने वचनों को (सूनकर) उनमें साधु को आसक्त नहीं होना चाहिए, गृद्धि नहीं करनी चाहिए, मुग्ध नहीं होना चाहिए, उनके लिए स्व-पर का परिहनन नहीं करना चाहिए, लुब्ध नहीं होना चाहिए, तुष्ट नहीं होना चाहिए, हँसना नहीं चाहिए, ऐसे शब्दों का स्मरण और विचार भी नहीं करना चाहिए।
इसके अतिरिक्त श्रोत्रेन्द्रिय के लिए अमनोज्ञ एवं पापक शब्द को सूनकर रोष नहीं करना । वे शब्द-कौन से हैं ? आक्रोश, परुष, वचन, खिंसना-निन्दा, अपमान, तर्जना, निर्भर्त्सना, दीप्तवचन, त्रासजनक वचन, अस्पष्ट उच्च ध्वनि, रुदनध्वनि, रटित, क्रन्दन, निर्घष्ट, रसित, विलाप के शब्द-इन सब शब्दों में तथा इसी प्रकार के अन अमनोज्ञ एवं पापक शब्दों में साधु को रोष नहीं करना चाहिए, उनकी हीलना, या निन्दा नहीं करनी चाहिए, जनसमूह के समक्ष उन्हें बूरा नहीं करना चाहिए, अमनोज्ञ शब्द उत्पन्न करने वाली वस्तु का छेदन, भेदन या नष्ट नहीं करना चाहिए । अपने अथवा दूसरे के हृदय में जुगुप्सा उत्पन्न नहीं करनी चाहिए । इस प्रकार श्रोत्रेन्द्रिय (संयम) की भावना से भावित अन्तःकरण वाला साधु मनोज्ञ एवं अमनोज्ञरूप शुभ-अशुभ शब्दों में राग-द्वेष के संवर वाला, मन-वचन और काय का गोपन करने वाला, संवरयुक्त एवं गुप्तेन्द्रिय होकर धर्म का आचरण करे।
द्वितीय भावना चक्षुरिन्द्रिय का संवर है । चक्षुरिन्द्रिय से मनोज्ञ एवं भद्र सचित्त द्रव्य, अचित्त द्रव्य और मिश्र द्रव्य के रूपों को देख कर वे रूप चाहे काष्ठ पर हों, वस्त्र पर हों, चित्र-लिखित हों, मिट्टी आदि के लेप से बनाए गए हों, पाषण पर अंकित हों, हाथीदाँत आदि पर हों, पाँच वर्ण के और नाना प्रकार के आकार वाले हों, Dथ कर माला आदि की तरह बनाए गए हों, वेष्टन से, चपड़ी आदि भरकर अथवा संघात से-फूल आदि की तरह एक-दूसरे को मिलाकर बनाए गए हों, अनेक प्रकार की मालाओं के रूप हों और वे नयनों तथा मन को अत्यन्त आनन्द प्रदान करने वाले हों (तथापि उन्हें देखकर राग नहीं उत्पन्न होने देना चाहिए)।
इसी प्रकार वनखण्ड, पर्वत, ग्राम, आकर, नगर तथा विकसित नीलकमलों एवं कमलों से सुशोभित और मनोहर तथा जिनमें अनेक हंस, सारस आदि पक्षियों के युगल विचरण कर रहे हों, ऐसे छोटे जलाशय, गोलाकार वावड़ी, चौकोर वावड़ी, दीर्घिका, नहर, सरोवरों की कतार, सागर, बिलपंक्ति, लोहे आदि की खानों में खोदे हुए गडहों की पंक्ति, खाई, नदी, सर, तडाग, पानी की क्यारी अथवा उत्तम मण्डप, विविध प्रकार के भवन, तोरण, चैत्य, देवालय, सभा, प्याऊ, आवसथ, सुनिर्मित शयन, आसन, शिबिका, रथ, गाड़ी, यान, युग्य, स्यन्दन और नरनारियों का समूह, ये सब वस्तुएं यदि सौम्य हों, आकर्षक रूपवाली दर्शनीय हों, आभूषणों से अलंकृत और सुन्दर वस्त्रों से विभूषित हों, पूर्व में की हुई तपस्या के प्रभाव से सौभाग्य को प्राप्त हों तो (इन्हें देखकर) तथा नट, नर्तक, जल्ल, मल्ल, मौष्टिक, विदूषक, कथावाचक, प्लवक, रास करने वाले व वार्ता कहने वाले, चित्रपट लेकर भिक्षा माँगने वाले, वाँस पर खेल करने वाले, तुणा बजाने वाले, तुम्बे की वीणा बजाने वाले एवं तालाचरों के विविध प्रयोग देखकर तथा बहुत से करतबों को देखकर । इस प्रकार के अन्य मनोज्ञ तथा सुहावने रूपों में साधु को आसक्त नहीं होना चाहिए, अनुरक्त नहीं होना चाहिए, यावत् उनका स्मरण और विचार भी नहीं करना चाहिए
- इसके सिवाय चक्षुरिन्द्रिय से अमनोज्ञ और पापकारी रूपों को देखकर (रोष नहीं करना चाहिए) । वे (अमनोज्ञ रूप) कौन-से हैं ? वात, पित्त, कफ और सन्निपात से होने वाले गंडरोग वाले को, अठारह प्रकार के कुष्ठ रोग वाले को, कुणि को, जलोदर के रोगी को, खुजली वाले को, श्लीपद रोग के रोगी को, लंगड़े को, वामन को, जन्मान्ध को, काणे को, विनिहत चक्षु को जिसकी एक या दोनों आँखें नष्ट हो गई हों, पिशाचग्रस्त को अथवा पीठ से सरक कर चलने वाले, विशिष्ट चित्तपीड़ा रूप व्याधि या रोग से पीड़ित को तथा विकृत मृतक-कलेवरों को या बिलबिलाते कीड़ों से युक्त सड़ी-गली द्रव्यराशि को देखकर अथवा इनके सिवाय इसी प्रकार के अन्य अमनोज्ञ और पापकारी रूपों को देखकर श्रमण को उन रूपों के प्रति रुष्ट नहीं होना चाहिए, यावत् अवहेलना आदि नहीं करनी चाहिए और मन में जुगुप्सा-धृणा भी नहीं उत्पन्न होने देना चाहिए । इस प्रकार चक्षुरिन्द्रियसंवर रूप भावना से भावित अन्तःकरण वाला होकर मुनि यावत् धर्म का आचरण करे ।
घ्राणेन्द्रिय से मनोज्ञ और सुहावना गंध सूंघकर (रागादि नहीं करना चाहिए) । वे सुगन्ध क्या-कैसे हैं ?
मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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