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आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण'
द्वार/अध्ययन/ सूत्रांक जल और स्थल में उत्पन्न होने वाले सरस पुष्प, फल, पान, भोजन, उत्पलकुष्ठ, तगर, तमालपत्र, सुगन्धित त्वचा, दमनक, मरुआ, इलायची का रस, पका हुआ मांसी नामक सुगन्ध वाला द्रव्य-जटामासी, सरस गोशीर्ष चन्दन, कपूर, लवंग, अगर, कुंकुम, कक्कोल, उशीर, श्वेत, चन्दन, श्रीखण्ड आदि द्रव्यों के संयोग से बनी श्रेष्ठ धूप की सुगन्ध को सूंघकर तथा भिन्न-भिन्न ऋतुओं में उत्पन्न होने वाले कालोचित सुगन्ध वाले एवं दूर-दूर तक फैलने वाली सुगन्ध से युक्त द्रव्यों में और इसी प्रकार की मनोहर, नासिका को प्रिय लगने वाली सुगन्ध के विषय में मुनि को आसक्त नहीं होना चाहिए, यावत् अनुरागादि नहीं करना चाहिए । उनका स्मरण और विचार भी नहीं करना चाहिए। इसके अतिरिक्त घ्राणेन्द्रिय से अमनोज्ञ और असुहावने गंधों को सूंघकर (रोष आदि नहीं करना चाहिए)। वे दुर्गन्ध कौन-से हैं ? मरा हुआ सर्प, घोड़ा, हाथी, गाय तथा भेड़िया, कुत्ता, मनुष्य, बिल्ली, शृंगाल, सिंह और चिता आदि के मृतक सड़े-गले कलेवरों की, जिसमें कीड़े बिलबिला रहे हों, दूर-दूर तक बदबू फैलाने वाली गन्ध में तथा इसी प्रकार के और भी अमनोज्ञ और असुहावनी दुर्गन्धों के विषय में साधु को रोष नहीं करना चाहिए यावत् इन्द्रियों को वशीभूत करके धर्म का आचरण करना चाहिए।
रसना-इन्द्रिय से मनोज्ञ एवं सुहावने रसों का आस्वादन करके (उनमें आसक्त नहीं होना चाहिए) । वे रस कैसे हैं ? घी-तैल आदि में डुबा कर पकाए हुए खाजा आदि पकवान, विविध प्रकार के पानक, तेल अथवा घी से बने हुए मालपूवा आदि वस्तुओं में, जो अनेक प्रकार के नमकीन आदि रसों से युक्त हों, मधु, माँस, बहुत प्रकार की मज्जिका, बहुत व्यय करके बनाया गया, खट्टी दाल, सैन्धाम्ल, दूध, दही, सरक, मद्य, उत्तम प्रकार की वारुणी, सीधु तथा पिशायन नामक मदिराएं, अठारह प्रकार के शाक वाले ऐसे अनेक प्रकार के मनोज्ञ वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से युक्त अनेक द्रव्यों से निर्मित भोजन में तथा इसी प्रकार के अन्य मनोज्ञ एवं लुभावने रसों में साधु को आसक्त नहीं होना चाहिए, यावत् उनका स्मरण तथा विचार भी नहीं करना चाहिए। इसके अतिरिक्त जिह्वा-इन्द्रिय से अमनोज्ञ और असुहावने रसों का, आस्वाद करके (रोष आदि नहीं करना चाहिए) । वे अमनोज्ञ रस कौन-से हैं ? अरस, विरस, ठण्डे, रूखे, निर्वाह के अयोग्य भोजन-पानी को तथा रात-वासी, व्यापन्न, सड़े हुए, अमनोज्ञ, तिक्त, कटु, कसैले, खट्टे, शेवालरहित पुराने पानी के समान एवं नीरस पदार्थों में तथा इसी प्रकार के अन्य अमनोज्ञ तथा अशुभ रसों में साधु को रोष धारण नहीं करना चाहिए यावत् संयतेन्द्रिय होकर धर्म का आचरण करना चाहिए।
स्पर्शनेन्द्रिय से मनोज्ञ और सुहावने स्पर्शों को छूकर (रागभाव नहीं धारण करना चाहिए) । वे मनोज्ञ स्पर्श कौन-से हैं ? जलमण्डप, हार, श्वेत चन्दन, शीतल निर्मल जल, विविध पुष्पों की शय्या, खसखस, मोती, पद्मनाल, चन्द्रमा की चाँदनी तथा मोर-पिच्छी, तालवृन्त, वीजना से की गई सुखद शीतल पवन में, ग्रीष्मकाल में सुखद स्पर्श वाले अनेक प्रकार के शयनों और आसनों में, शिशिरकाल में आवरण गुण वाले अंगारों से शरीर को तपाने, धूप स्निग्ध पदार्थ, कोमल और शीतल, गर्म और हल्के, शरीर को सुख और मन को आनन्द देने वाले हों, ऐसे सब स्पर्शों में तथा इसी प्रकार के अन्य मनोज्ञ और सुहावने स्पर्शों में श्रमण को आसक्त नहीं होना चाहिए, अनुरक्त नहीं होना चाहिए, गृद्ध नहीं होना चाहिए, मुग्ध नहीं होना चाहिए और स्व-परहित का विघात नहीं करना चाहिए, लुब्ध नहीं होना चाहिए, तल्लीनचित्त नहीं होना चाहिए, उनमें सन्तोषानुभूति नहीं करनी चाहिए, हँसना नहीं चाहिए, यहाँ तक कि उनका स्मरण और विचार भी नहीं करना चाहिए।
इसके अतिरिक्त स्पर्शनेन्द्रिय से अमनोज्ञ एवं पापक-असुहावने स्पर्शों को छूकर (रुष्ट-द्विष्ट नहीं होना चाहिए) । वे स्पर्श कौन-से हैं ? वध, बन्धन, ताड़न आदि का प्रहार, अंकन, अधिक भार का लादा जाना, अंग-भंग होना या किया जाना, शरीर में सूई या नख का चुभाया जाना, अंग की हीनता होना, लाख के रस, नमकीन तैल, उबलते शीशे या कृष्णवर्ण लोहे से शरीर का सीचा जाना, काष्ठ के खोड़े में डाला जाना, डोरी के निगड बन्धन से बाँधा जाना, हथकड़ियाँ पहनाई जाना, कुंभी में पकाना, अग्नि से जलाया जाना, शेफत्रोटन लिंगच्छेद, बाँधकर ऊपर से लटकाना, शूली पर चढ़ाया जाना, हाथी के पैर से कुचला जाना, हाथ-पैर-कान-नाक-होठ और शिर में छेद किया जाना, जीभ का बाहर खींचा जाना, अण्डकोश-नेत्र-हृदय-दाँत या आंत का मोड़ा जाना, गाड़ी में जोता
मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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