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आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण'
द्वार/अध्ययन/सूत्रांक समस्त जगद्वर्ती जीवों का वत्सल होता है । वह सत्यभाषी, संसार- के अन्त में स्थित, संसार का उच्छेद करने वाला, सदा के लिए मरण आदि का पारगामी और सब संशयों का पारगामी होता है । आठ प्रवचनमाताओं के द्वारा आठ कर्मों की ग्रन्थि को खोलने वाला, आठ मदों का मथन करने वाला एवं स्वकीय सिद्धान्त में निष्णात होता है । वह सुख-दुःख में विशेषता रहित होता है । आभ्यन्तर और बाह्य तप रूप उपधान में सम्यक् प्रकार से उद्यत रहता है, क्षमावान्, इन्द्रियविजेता, स्वकीय और परकीय हित में निरत, ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदान-भाण्ड-मात्र-निक्षेपणसमिति और मल-मूत्र-श्लेष्म-संधान-नासिकामलजल्ल आदि के प्रतिष्ठापन की समिति से युक्त, मनोगुप्ति से, वचनगुप्ति से और कायगुप्ति से युक्त, विषयों की ओर उन्मुख इन्द्रियों का गोपन करने वाला, ब्रह्मचर्य की गुप्ति से युक्त, समस्त प्रकार के संग का त्यागी, सरल, तपस्वी, क्षमागुण के कारण सहनशील, जितेन्द्रिय, सदगुणों से शोभित या शोधित, निदान से रहित, चित्तवत्ति को संयम की परिधि से बाहर न जाने देने वाला, ममत्व से विहीन, अकिंचन, स्नेहबन्धन को काटने वाला और कर्म के उपलेप से रहित होता है । मुनि आगे कही जाने वाली उपमाओं से मण्डित होता है
कांसे के उत्तम पात्र समान रागादि के बन्ध से मुक्त होता है | शंख के समान निरंजन, कच्छप की तरह इन्द्रियों का गोपन करने वाला । उत्तम शुद्ध स्वर्ण के समान शुद्ध आत्मस्वरूप को प्राप्त । कमल के पत्ते के सदृश निर्लेप । चन्द्रमा के समान सौम्य, सूर्य के समान देदीप्यमान, मेरु के समान अचल, सागर के समान क्षोभरहित, पृथ्वी के समान समस्त स्पर्शों को सहन करने वाला । तपश्चर्या के तेज से दीप्त प्रज्वलित अग्नि के सदृश देदीप्यमान, गोशीर्ष चन्दन की तरह शीतल, सरोवर के समान प्रशान्तभाव वाला, अच्छी तरह घिस कर चमकाए हुए निर्मल दर्पणतल के समान स्वच्छ, गजराज की तरह शूरवीर, वृषभ की तरह अंगीकृत व्रतभार का निर्वाह करने वाला, मृगाधिपति सिंह के समान परीषहादि से अजेय, शरत्कालीन जल के सदृश स्वच्छ हृदय वाला, भारण्ड पक्षी के समान अप्रमत्त, गेंडे के सींग के समान अकेला, स्थाणु की भाँति ऊर्ध्वकाय, शून्यगृह के समान अप्रतिकर्म, वायुरहित घर में स्थित प्रदीप की तरह निश्चल, छूरे की तरह एक धार वाला, सर्प के समान एकदृष्टि वाला, आकाश के समान स्वावलम्बी । पक्षी के सदृश विप्रमुक्त, सर्प के समान दूसरों के लिए निर्मित स्थान में रहने वाला । वायु के समान अप्रतिबद्ध । देहविहीन जीव के समान अप्रतिहत गति वाला होता है।
(मुनि) ग्राम में एक रात्रि और नगर में पाँच रात्रि तक विचरता है, क्योंकि वह जितेन्द्रिय होता है, परीषहों को जीतने वाला, निर्भय, विद्वान, सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्यों में वैराग्य युक्त होता है, वस्तुओं के संचय से विरत, मुक्त, लघु, जीवन मरण की आशा से मुक्त, चारित्र-परिणाम के विच्छेद से रहित, निरतिचार, अध्यात्मध्यान में निरत, उपशान्तभाव तथा एकाकी होकर धर्म आचरण करे । परिग्रहविरमणव्रत के परिरक्षण हेतु भगवान ने यह प्रवचन कहा है । यह प्रवचन आत्मा के लिए हितकारी है, आगामी भवों में उत्तम फल देने वाला है और भविष्य में कल्याण करने वाला है । यह शुद्ध, न्याययुक्त, अकुटिल, सर्वोत्कृष्ट और समस्त दुःखों तथा पापों को सर्वथा शान्त करने वाला है।
अपरिग्रह महाव्रत की पाँच भावनाएं हैं । उनमें से प्रथम भावना इस प्रकार है-श्रोत्रेन्द्रिय से, मन के अनकल होने के कारण भद्र शब्दों को सनकर (साध को राग नहीं करना चाहिए) । वे शब्द कौन से, किस प्रकार के हैं ? उत्तम मुरज, मृदंग, पणव, दुर्दर, कच्छभी, वीणा, विपंची और वल्लकी, बध्धीसक, सुघोषा, घंटा, नन्दी, सूसर-परिवादिनी, वंश, तूणक एवं पर्वक नामक वाद्य, तंत्री, तल, ताल, इन सब बाजों के नाद को (सून कर) तथा नट, नर्तक, जल्ल, मल्ल, मुष्टिमल्ल, विदूषक, कथक, प्लवक, रास गाने वाले आदि द्वारा किये जाने वाले नाना प्रकार की मधुर ध्वनि से युक्त सुस्वर गीतों को (सून कर) तथा कंदोरा, मेखला, कलापक, प्रतरक, प्रहेरक, पादजालक एवं घण्टिका, खिंखिनी, रत्नोरुजालक, क्षुद्रिका, नेउर, चरणमालिका, कनकनिगड और जालक इन सब की ध्वनि सूनकर तथा लीलापूर्वक चलती हुई स्त्रियों की चाल से उत्पन्न एवं तरुणी रमणियों के हास्य की, बोलों की तथा स्वर-घोलनायुक्त मधुर तथा सुन्दर आवाज को और स्नेहीजनों द्वारा भाषित प्रशंसा-वचनों को एवं
मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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