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________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/ सूत्रांक इसी कारण उत्तम मुनि पुष्प, फल आदि का परिवर्जन करते हैं । और जो भी ओदन, कुल्माष, गंज, तर्पण, मंथु, आटा, पूँजी हुई धानी, पलल, सूप, शष्कुली, वेष्टिम, वरसरक, चूर्णकोश, गुड़ पिण्ड, शिखरिणी, बड़ा, मोदक, दूध, दही, घी, मक्खन, तेल, खाजा, गुड़, खाँड़, मिश्री, मधु, मद्य, माँस और अनेक प्रकार के व्यंजन, छाछ आदि वस्तुओं का उपाश्रय में, अन्य किसी के घर में अथवा अटवी में सुविहित-परिग्रहत्यागी, शोभन आचार वाले साधुओं को संचय करना नहीं कल्पता है । इसके अतिरिक्त जो आहार औद्देशिक हो, स्थापित हो, रचित हो, पर्यवजात हो, प्रकीर्ण, प्रादुष्करण, प्रामित्य, मिश्रजात. क्रीतकत. प्राभत दोषवाला हो, जो दान के लिए या पण्य के लिए बनाया गया प्रकार के श्रमणों अथवा भिखारियों को देने के लिए तैयार किया गया हो, जो पश्चात्कर्म अथवा पुरःकर्म दोष से जो नित्यकर्म-दषित हो, जो प्रक्षित, अतिरिक्त मौखर, स्वयंग्राह अथवा आहत हो, मत्तिकोपलिप्त, आच्छेद्य, अनिसृष्ट हो अथवा जो आहार मदनत्रयोदशी आदि विशिष्ट तिथियों में यज्ञ और महोत्सवों में, उपाश्रय के भीतर या बाहर साधुओं को देने के लिए रखा हो, जो हिसा-सावद्य दोषों से युक्त हो, ऐसा भी आहार साधु को लेना नहीं कल्पता है। तो फिर किस प्रकार का आहार साधु के लिए ग्रहण करने योग्य है ? जो आहारादि एकादश पिण्डपात से शुद्ध हो, जो खरीदना, हनन करना और पकाना, इन तीन क्रियाओं से कृत, कारित और अनुमोदन से निष्पन्न नौ कोटियों से पूर्ण रूप से शुद्ध हो, जो एषणा के दस दोषों से रहित हो, जो उद्गम और उत्पादनारूप एषणा दोष से रहित हो, जो सामान्य रूप से निर्जीव हुए, जीवन से च्युत हो गया हो, आयुक्षय के कारण जीवनक्रियाओं से रहित हो, शरीरोपचय से रहित हो, अत एव जो प्रासुक हो, संयोग और अंगार नामक मण्डल-दोष से रहित हो, धूम-दोष से रहित हो, जो छह कारणों में से किसी कारण से ग्रहण किया गया हो और छह कायों की रक्षा के लिए स्वीकृत किया गया हो, ऐसे प्रासुक आहारादि से प्रतिदिन निर्वाह करना चाहिए। आगमानुकूल चारित्र का परिपालन करने वाले साधु को यदि अनेक प्रकार के ज्वर आदि रोग और आतंक या व्याधि उत्पन्न हो जाए, वात, पित्त या कफ या अतिशय प्रकोप हो जाए, अथवा सन्निपात हो जाए और इसके कारण उज्ज्वल, प्रबल, विपुल-दीर्घकाल तक भोगने योग्य कर्कश एवं प्रगाढ़ दुःख उत्पन्न हो जाए और वह दुःख अशुभ या कटुक द्रव्य के समान असुख हो, परुष हो, दुःखमय दारुण फल वाला हो, महान भय उत्पन्न करने वाला हो, जीवन का अन्त करने वाला और समग्र शरीर में परिताप उत्पन्न करने वाला हो, तो ऐसा दुःख उत्पन्न होने की स्थिति में भी स्वयं अपने लिए अथवा दूसरे साधु के लिए औषध, भैषज्य, आहार तथा पानी का संचय करके रखना नहीं कल्पता। पात्रधारी सुविहित साधु के पास जो पात्र, भाँड, उपधि और उपकरण होते हैं, जैसे-पात्र, पात्रबन्धन, पात्र केसरिका, पात्रस्थापनिका, पटल, रजस्राण, गोच्छक, तीन प्रच्छाद, रजोहरण, चोलपट्टक, मुखानन्तक, ये सब भी संयम की वृद्धि के लिए होते हैं तथा वात, ताप, धूप, डाँस-मच्छर और शीत से रक्षण के लिए हैं । इन सब उपकरणों को राग और द्वेष से रहित होकर साधु को धारण करने चाहिए । सदा इनका प्रतिलेखन, प्रस्फोटन और प्रमार्जन करना चाहिए । दिन में और रात्रि में सतत अप्रमत्त रहकर भाजन, भाण्ड, उपधि और उपकरणों को रखना और ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार के आचार का परिपालन करने के कारण वह साधु संयमवान, विमुक्त, निःसंग, निष्परिग्रहरुचि, निर्मम, निःस्नेहबन्धन, सर्वपापविरत, वासी-चन्दनकल्प समान भावना वाला, तृण, मणि, मुक्ता और मिट्टी के ढेले को समान मानने वाला रूप, सन्मान और अपमान में समता का धारक, पापरूपी रज को उपशान्त करने वाला, राग-द्वेष को शान्त करने वाला, ईर्या आदि पाँच समितियों से युक्त, सम्यग्दृष्टि और समस्त प्राणों-द्वीन्द्रियादि त्रस प्राणियों और भूतों पर समभाव धारण करने वाला होता है । वही वास्तव में साधु है। वह साधु श्रुत का धारक, ऋजु- और संयमी है । वह साधु समस्त प्राणियों के लिए शरणभूत होता है, मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 49
SR No.034677
Book TitleAgam 10 Prashnavyakaran Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages54
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 10, & agam_prashnavyakaran
File Size3 MB
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