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आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण'
द्वार/अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-१० - संवरद्वार-५ सूत्र-४४
__ हे जम्बू ! जो मूर्छारहित है । आरंभ और परिग्रह रहित है । तथा क्रोध-मान-माया-लोभ से विरत है । वही श्रमण है।
एक असंयम, राग और द्वेष दो, तीन दण्ड, तीन गौरव, तीन गुप्ति, तीन विराधना, चार कषाय-चार ध्यानचार संज्ञा-चार विकथा, पाँच क्रिया-पाँच समिति-पाँच महाव्रत छह जीवनिकाय, छह लेश्या, सात भय, आठ मद, नव ब्रह्मचर्यगुप्ति, दशविध श्रमणधर्म, एकादश उपासकप्रतिमा, बारह भिक्षुप्रतिमा, तेरह क्रियास्थान, चौदह भूतग्राम, पंद्रह परमाधामी, सोलह गाथा अध्ययन, सत्तरहविध असंयम, अट्ठारह अब्रह्म, एगूणवीस ज्ञात अध्ययन, बीस असमाधि स्थान, एकवीस शबलदोष, बाईस परीषह, तेईस सूत्रकृत अध्ययन, चोबीस देव, पंचवीस भावना, छब्बीस दसा कल्प व्यवहार उदेसनकाल सत्ताईस अनगारगुण, अट्ठाईस आचार प्रकल्प एगूणतीस पापश्रुतप्रसंग, तीस मोहनीयस्थान, इकतीस सिद्धों के गुण, बत्तीस योग संग्रह और तैंतीस आशातना-इन सब संख्या वाले पदार्थों में तथा इसी प्रकार के अन्य पदार्थों में, जो जिनेश्वर द्वारा प्ररूपित हैं तथा शाश्वत अवस्थित और सत्य हैं, किसी प्रकार की शंका या कांक्षा न करके हिंसा आदि से निवृत्ति करनी चाहिए एवं विशिष्ट एकाग्रता धारण करनी चाहिए। इस प्रकार नियाणा से रहित होकर, ऋद्धि आदि के गौरव से दूर रह कर, निर्लोभ होकर तथा मूढ़ता त्याग कर जो अपने मन, वचन और काय को संवृत्त करता हुआ श्रद्धा करता है, वही वास्तव में साधु है। सूत्र-४५
श्रीवीरवर-महावीर के वचन से की गई परिग्रहनिवृत्ति के विस्तार से यह संवरवर-पादप बहुत प्रकार का है। सम्यग्दर्शन इसका विशुद्ध मूल है । धृति इसका कन्द है । विनय इसकी वेदिका है । तीनों लोकों में फैला हुआ विपुल यश इसका सघन, महान और सुनिर्मित स्कन्ध है । पाँच महाव्रत इसकी विशाल शाखाएं हैं । भावनाएं इस संवरवृक्ष की त्वचा है। धर्मध्यान, शुभयोग तथा ज्ञान रूपी पल्लवों के अंकुरों को यह धारण करने वाला है । बहुसंख्यक उत्तरगुण रूपी फूलों से यह समृद्ध है । यह शील के सौरभ से सम्पन्न है और वह सौरभ ऐहिक फल की वाञ्छा से रहित सत्प्रवृत्तिरूप है । यह संवरवृक्ष अनास्रव फलों वाला है । मोक्ष की इसका उत्तम बीजसार है । यह मेरु पर्वत के शिखर पर चूलिका के समान मोक्ष के निर्लोभता स्वरूप मार्ग का शिखर है । इस प्रकार का अपरिग्रह रूप उत्तम संवरद्वार रूपी जो वृक्ष है, वह अन्तिम संवरद्वार है।
ग्राम, आकर, नगर, खेड़, कर्बट, मडंब, द्रोणमुख, पत्तन अथवा आश्रम में रहा हुआ कोई भी पदार्थ हो, चाहे वह अल्प मूल्य वाला हो या बहुमूल्य हो, प्रमाण में छोटा हो अथवा बड़ा हो, वह भले त्रसकाय हो या स्थावर काय हो, उस द्रव्यसमूह को मन से भी ग्रहण करना नहीं कल्पता, चाँदी, सोना, क्षेत्र, वास्तु भी ग्रहण करना नहीं कल्पता । दासी, दास, भृत्य, प्रेष्य, घोड़ा, हाथी, बैल आदि भी ग्रहण करना नहीं कल्पता । यान, गाड़ी, युग्य, शयन
और छत्र भी ग्रहण करना नहीं कल्पता, न कमण्डलु, न जूता, न मोरपींछी, न वीजना और तालवृन्त ग्रहण करना कल्पता है । लोहा, रांगा, तांबा, सीसा, कांसा, चाँदी, सोना, मणि और मोती का आधार सीपसम्पुट, शंख, उत्तम दाँत, सींग, शैल-पाषाण, उत्तम काच, वस्त्र और चर्मपात्र-इन सब को भी ग्रहण करना नहीं कल मूल्यवान पदार्थ दूसरे के मन में ग्रहण करने की तीव्र आकांक्षा उत्पन्न करते हैं, आसक्तिजनक हैं, उन्हें सँभालने
और बढ़ाने की ईच्छा उत्पन्न करते हैं, किन्तु साधु को नहीं कल्पता कि वह इन्हें ग्रहण करे । इसी प्रकार पुष्प, फल, कन्द, मूल आदि तथा सन जिनमें सत्तरहवाँ है, ऐसे समस्त धान्यों को भी परिग्रह-त्यागी साधु औषध, भैषज्य या भोजन के लिए त्रियोग-मन, वचन, काय से ग्रहण न करे।
नहीं ग्रहण करने का क्या कारण है ? अनन्त ज्ञान और दर्शन के धारक, शील, गुण, विनय, तप और संयम के नायक, जगत के समस्त प्राणियों पर वात्सल्य धारण करने वाले, त्रिलोक पूजनीय, तीर्थंकर जिनेन्द्र देवों ने अपने केवलज्ञान से देखा है कि ये पुष्प, फल आदि त्रस जीवों की योनि हैं । योनि का उच्छेद करना योग्य नहीं है।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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