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आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण'
द्वार/अध्ययन/ सूत्रांक तर्जना करके और ताड़ना करके भी भिक्षा नहीं ग्रहण करना चाहिए और यह तीनों-भय-तर्जना-ताड़ना करके भी भिक्षा की गवेषणा नहीं करनी चाहिए । अभिमान से, दरिद्रता दिखाकर, मायाचार करके या क्रोध करके, दीनता दिखाकर और न यह तीनों-गौरव-क्रोध-दीनता दिखाकर भिक्षा की गवेषणा करनी चाहिए । मित्रता प्रकट करके, प्रार्थना करके और सेवा करके भी अथवा यह तीनों करके भी भिक्षा की गवेषणा नहीं करनी चाहिए । किन्तु अज्ञात रूप से, अगृद्ध, मूर्छा से रहित होकर, आहार और आहारदाता के प्रति द्वेष न करते हुए, अदीन, अपने प्रति हीनता भाव न रखते हुए, अविषादी वचन कहकर, निरन्तर मन-वचन-काय को धर्मध्यान में लगाते हुए, प्राप्त संयमयोग में उद्यम, अप्राप्त संयम योगों की प्राप्ति में चेष्टा, विनय के आचरण और क्षमादि के गुणों के योग से युक्त होकर साधु को भिक्षा की गवेषणा में निरत-तत्पर होना चाहिए।
यह प्रवचन श्रमण भगवान महावीर ने जगत के समस्त जीवों की रक्षा के लिए समीचीन रूप में कहा है। यह प्रवचन आत्मा के लिए हितकर है, परलोक में शुद्ध फल के रूप में परिणत होने से भविक है तथा भविष्यत् काल में भी कल्याणकर है । यह भगवत्प्रवचन शुद्ध है और दोषों से मुक्त रखने वाला है, न्याययुक्त है, अकुटिल है, यह अनुत्तर है तथा समस्त दुःखों और पापों को उपशान्त करने वाला है। सूत्र - ३५
पाँच महाव्रतों-संवरों में से प्रथम महाव्रत की ये-आगे कही जाने वाली-पाँच भावनाएं प्राणातिपातविरमण अर्थात् अहिंसा महाव्रत की रक्षा के लिए हैं । खड़े होने, ठहरने और गमन करने में स्व-पर की पीड़ारहितता गणयोग को जोडने वाली तथा गाडी के युग प्रमाण भमि पर गिरने वाली दष्टि से निरन्तर कीट, पतंग, त्रस, स्थावर जीवों की दया में तत्पर होकर फल, फल, छाल, प्रवाल-पत्ते-कोंपल-कंद, मल, जल, मिट्री, बीज एवं हरितकायदब आदि को बचाते हए, सम्यक प्रकार से चलना चा
र, सम्यक् प्रकार से चलना चाहिए । इस प्रकार चलने वाले साधु को निश्चय ही समस्त प्राणी की हीलना, निन्दा, गर्दा, हिंसा, छेदन, भेदन, व्यथित, नहीं करना चाहिए । जीवों को लेश मात्र भी भय या दुःख
चाहिए । इस प्रकार (के आचरण) से साधु ईर्यासमिति में मन, वचन, काय की प्रवृत्ति से भावित होता है । तथा सबलता से रहित, संक्लेश से रहित, अक्षत चारित्र की भावना से युक्त, संयमशील एवं अहिंसक सुसाधु कहलाता है।
दूसरी भावना मनःसमिति है । पापमय, अधार्मिक, दारुण, नृशंस, वध, बन्ध और परिक्लेश की बहुलता वाले, भय, मृत्यु एवं क्लेश से संक्लिष्ट ऐसे पापयुक्त मन से लेशमात्र भी विचार नहीं करना चाहिए । इस प्रकार (के आचरण) से-मनःसमिति की प्रवृत्ति से अन्तरात्मा भावित होती है तथा निर्मल, संक्लेशरहित, अखण्ड निरतिचार चारित्र की भावना से युक्त, संयमशील एवं अहिंसक सुसाधु कहलाता है।
अहिंसा महाव्रत की तीसरी भावना वचनसमिति है। पापमय वाणी से तनिक भी पापयुक्त वचन का प्रयोग नहीं करना चाहिए । इस प्रकार की वाक्समिति के योग से युक्त अन्तरात्मा वाला निर्मल, संक्लेशरहित और अखण्ड चारित्र की भावना वाला अहिंसक साधु सुसाधु होता है।
आहार की एषणा से शुद्ध, मधुकरी वृत्ति से, भिक्षा की गवेषणा करनी चाहिए । भिक्षा लेनेवाला साधु अज्ञात रहे, अगृद्ध, अदुष्ट, अकरुण, अविषाद, सम्यक् प्रवृत्ति में निरत रहे । प्राप्त संयमयोगों की रक्षा के लिए यतनाशील एवं अप्राप्त संयमयोगों की प्राप्ति के लिए प्रयत्नवान, विनय का आचरण करने वाला तथा क्षमा आदि गुणों की प्रवृत्ति से युक्त ऐसा भिक्षाचर्या में तत्पर भिक्षु अनेक घरों में भ्रमण करके थोड़ी-थोड़ी भिक्षा ग्रहण करे । भिक्षा ग्रहण करके अपने स्थान पर गुरुजन के समक्ष जाने-आने में लगे हुए अतिचारों का प्रतिक्रमण करे । गृहीत आहार-पानी की आलोचना करे, आहार-पानी उन्हें दिखला दे, फिर गुरुजन के द्वारा निर्दिष्ट किसी अग्रगण्य साधु के आदेश के अनुसार, सब अतिचारों से रहित एवं अप्रमत्त होकर विधिपूर्वक अनेषणाजनित दोषों की निवृत्ति के लिए पुनः प्रतिक्रमण करे । तत्पश्चात् शान्त भाव से सुखपूर्वक आसीन होकर, मुहर्त भर धर्मध्यान, गुरु की सेवा आदि शुभ योग, तत्त्वचिन्तन अथवा स्वाध्याय के द्वारा अपने मन का गोपन करके-चित्त स्थिर करके श्रुत-चारित्र
मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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