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आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण'
द्वार/अध्ययन/सूत्रांक मतिज्ञानियों, श्रुतज्ञानियों, अवधिज्ञानियों, मनःपर्यवज्ञानियों, केवलज्ञानियों ने, आमखैषधिलब्धि धारक, श्लेष्मौषधिलब्धि धारक, जल्लौषधिलब्धि धारकों, विप्रडौषधिलब्धि धारकों, सर्वोषधिलब्धिप्राप्त, बीजबुद्धिकोष्टबुद्धि-पदानुसारिबुद्धि-लब्धिकारकों, संभिन्नश्रोतस्लब्धि धारकों, श्रुतधरों, मनोबली, वचनबली और कायबली मुनियों, ज्ञानबली, दर्शनबली तथा चारित्रबली महापुरुषों ने, मध्यास्रवलब्धिधारी, सर्पिरास्रवलब्धिधारी तथा अक्षीणमहानसलब्धि के धारकों ने चारणों और विद्याधरों ने, चतुर्थभक्तिकों से लेकर दो, तीन, चार, पाँच दिनों, इसी प्रकार एक मास, दो मास, तीन मास, चार मास, पाँच मास एवं छह मास तक का अनशन-उपवास करने वाले तपस्वियों ने, इसी प्रकार उत्क्षिप्तचरक, निक्षिप्तचरक, अन्तचरक, प्रान्तचरक, रूक्षचरक, समुदानचरक, अन्नग्लायक, मौनचरक, संसृष्टकल्पिक, तज्जातसंसृष्टकल्पिक, उपनिधिक, शुद्धैषणिक, संख्यादत्तिक, दृष्ट-लाभिक, अदृष्टलाभिक, पृष्ठलाभिक, आचाम्लक, पुरिमार्धिक, एकाशनिक, निर्विकृतिक, भिन्नपिण्डपातिक, परिमितपिण्डपातिक, अन्ताहारी, प्रान्ताहारी, अरसाहारी, विरसाहारी, रूक्षाहारी, तृच्छाहारी, अन्तजीवी, प्रान्तजीवी, रूक्षजीवी, तुच्छजीवी, उपशान्तजीवी, प्रशान्तजीवी, विविक्तजीवी तथा दूध, मधु और धृत का यावज्जीवन त्याग करने वालों ने, मद्य और माँस से रहित आहार करने वालों ने कायोत्सर्ग करके एक स्थान पर स्थित रहने का अभिग्रह करने वालों ने, प्रतिमास्थायिकों ने स्थानोत्कटिकों ने, वीरासनिकों ने, नैषधिकों ने, दण्डायतिकों ने, लगण्डशायिकों ने, एकपार्श्वकों ने, आतापकों ने, अपाव्रतों ने, अनिष्ठीवकों ने, अकंडूयकों ने, धूतकेश-श्मश्रु लोम-नख अर्थात् सिर के बाल, दाढ़ी, मूंछ और नखों का संस्कार करने का त्याग करने वालों ने, सम्पूर्ण शरीर के प्रक्षालन आदि संस्कार के त्यागियों ने, श्रुतधरों के द्वारा तत्त्वार्थ को अवगत करनेवाली बुद्धिधारक महापुरुषों ने सम्यक् प्रकार से आचरण किया है । इनके अतिरिक्त आशीविष सर्प के समान उग्र तेज से सम्पन्न महापुरुषों ने, वस्तु तत्त्व का निश्चय और पुरुषार्थ-दोनों में पूर्ण कार्य करने वाली बुद्धि से सम्पन्न प्रज्ञापुरुषों ने, नित्य स्वाध्याय और चित्तवृत्तिनिरोध रूप ध्यान करने वाले तथा धर्मध्यान में निरन्तर चिन्ता को लगाये रखने वाले पुरुषों ने, पाँच महाव्रतस्वरूप चारित्र से युक्त तथा पाँच समितियों से सम्पन्न, पापों का शमन करने वाले, षट् जीवनिकायरूप जगत के वत्सल, निरन्तर अप्रमादी रहकर विचरण करने वाले महात्माओं ने तथा अन्य विवेकविभूषित सत्पुरुषों ने अहिंसा भगवती की आराधना की है।
अहिंसा का पालन करने के लिए उद्यत साधु को पृथ्वीकाय, अप्काय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रस, इस प्रकार सभी प्राणियों के प्रति संयमरूप दया के लिए शुद्ध भिक्षा की गवेषणा करनी चाहिए। जो आहार साधु के लिए नहीं बनाया गया हो, दूसरे से नहीं बनवाया गया हो, जो अनाहूत हो, अनुद्दिष्ट हो, साधु के उद्देश्य से खरीदा नहीं गया हो, जो नव कोटियों से विशुद्ध हो, शंकित, उदगम, उत्पादना और एषणा दोषों से रहित हो, जिस देय वस्तु में से आगन्तुक जीव-जन्तु स्वतः पृथक् हो गए हों, वनस्पतिकायिक आदि जीव स्वतः या परतः मृत हो गए हों या दाता द्वारा दूर करा दिए गए हों, इस प्रकार जो भिक्षा अचित्त हो, जो शुद्ध हो, ऐसी भिक्षा की गवेषणा करनी चाहिए । भिक्षा के लिए गृहस्थ के घर गए हुए साधु को आसन पर बैठ कर, धर्मोपदेश देकर या कथाकहानी सूनाकर प्राप्त किया हुआ आहार नहीं ग्रहण करना चाहिए । वह आहार चिकित्सा, मंत्र, मूल, औषध आदि के हेतु नहीं होना चाहिए । स्त्री पुरुष आदि के शुभाशुभसूचक लक्षण, उत्पात, अतिवृष्टि, दुर्भिक्ष आदि स्वप्न, ज्योतिष, महर्त्त आदि का प्रतिपादक शास्त्र, विस्मयजनक चामत्कारिक प्रयोग या जाद के प्रयोग के कारण दिया जाता आहार नहीं होना चाहिए । दम्भ करके भिक्षा नहीं लेनी चाहिए । गृहस्वामी के घर की या पुत्र आदि की रखवाली करने के बदले प्राप्त होने वाली भिक्षा नहीं लेनी चाहिए । गृहस्थ के पुत्रादि को शिक्षा देने या पढ़ाने के निमित्त से भी भिक्षा ग्राह्य नहीं है । गृहस्थ का वन्दन-स्तवन-प्रशंसा करके, सन्मान-सत्कार करके अथवा पूजासेवा करके और वन्दन, मानन एवं पूजन-इन तीनों को करके भिक्षा की गवेषणा नहीं करनी चाहिए।
(पूर्वोक्त वन्दन, मानन एवं पूजन से विपरीत) न तो गृहस्थ की हीलना करके, न निन्दना करके और न गर्दा करके तथा हीलना, निन्दना एवं गर्हा करके भिक्षा ग्रहण करनी चाहिए । इसी तरह साधु को भय दिखला कर,
मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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