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आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण'
द्वार/अध्ययन/ सूत्रांक रूप धर्म में संलग्न मनवाला होकर, चित्तशून्यता से रहित होकर, संक्लेश से मुक्त रहकर, कलह से रहित होकर, समाधियुक्त मन वाला, श्रद्धा, संवेग और कर्मनिर्जरा में चित्त को संलग्न करने वाला, प्रवचन में वत्सलतामय मन वाला होकर साधु अपने आसन से उठे और हृष्ट-तुष्ट होकर यथारानिक अन्य साधुओं को आहार के लिए निमंत्रित करे।
गुरुजनों द्वारा लाये हुए आहार को वितरण कर देने के बाद उचित आसन पर बैठे । फिर मस्तक सहित शरीर को तथा हथेली को भलीभाँति प्रमार्जित करके आहार में अनासक्त होकर, स्वादिष्ट भोजन की लालसा से रहित होकर तथा रसों में अनुरागरहित होकर, दाता या भोजन की निन्दा नहीं करता हुआ, सरस वस्तुओं में आसक्ति न रखता हुआ, अकलुषित भावपूर्वक, लोलुपता से रहित होकर, परमार्थ बुद्धि का धारक साधु 'सुर-सुर' ध्वनि न करता हआ, 'चप-चप' आवाज न करता हआ, न बहत जल्दी-जल्दी और न बहत देर से, भोजन को भमि पर न गिराता हआ, चौडे प्रकाशयुक्त पात्र में (भोजन करे ।) यतनापर्वक, आदरपूर्वक एवं संयोजन दोषों से रहित, अंगार तथा धूम दोष से रहित, गाड़ी की धूरी में तेल देने अथवा घाव पर मल्हम लगाने के समान, केवल संयमयात्रा के निर्वाह के लिए एवं संयम के भार को वहन करने के लिए प्राणों को धारण करने के उद्देश्य से साधु को सम्यक प्रकार से भोजन करना चाहिए।
इस प्रकार आहारसमिति में समीचीन रूप से प्रवृत्ति के योग से अन्तरात्मा भावित करने वाला साधु निर्मल, संक्लेशरहित तथा अखण्डित चारित्र की भावना वाला अहिंसक संयमी होता है।
अहिंसा महाव्रत की पाँचवीं भावना आदान-निक्षेपणसमिति है । इस का स्वरूप इस प्रकार है-संयम के उपकरण पीठ, चौकी, फलक पाट, शय्या, संस्तारक, वस्त्र, पात्र, कम्बल, दण्ड, रजोहरण, चोलपट्ट, मुखवस्त्रिका, पादपोंछन, ये अथवा इनके अतिरिक्त उपकरण संयम की रक्षा या वृद्धि के उद्देश्य से तथा पवन, धूप, डांस, मच्छर
और शीत आदि से शरीर की रक्षा के लिए धारण-ग्रहण करना चाहिए । साधु सदैव इन उपकरणों के प्रतिलेखन, प्रस्फोटन और प्रमार्जन करने में, दिन में और रात्रि में सतत अप्रमत्त रहे और भाजन, भाण्ड, उपधि तथा अन्य उपकरणों को यतनापूर्वक रखे या उठाए । इस प्रकार आदान-निक्षेपणसमिति के योग से भावित अन्तरात्माअन्तःकरण वाला साधु निर्मल, असंक्लिष्ट तथा अखण्ड चारित्र की भावना से युक्त अहिंसक संयमशील सुसाधु होता है।
इस प्रकार मन, वचन और काय से सुरक्षित इन पाँच भावना रूप उपायों से यह अहिंसा-संवरद्वार पालित होता है । अत एव धैर्यशाली और मतिमान् पुरुष को सदा सम्यक् प्रकार से इसका पालन करना चाहिए । यह अनास्रव है, दीनता से रहित, मलीनता से रहित और अनास्रवरूप है, अपरिस्रावी है, मानसिक संक्लेश से रहित है, शुद्ध है और सभी तीर्थंकरों द्वारा अनुज्ञात है । पूर्वोक्त प्रकार से प्रथम संवरद्वार स्पृष्ट होता है, पालित होता है, शोधित होता है, तीर्ण होता है, कीर्तित, आराधित और आज्ञा के अनुसार पालित होता है । ऐसा ज्ञातमुनि-महावीर ने प्रज्ञापित किया है एवं प्ररूपित किया है । यह सिद्धवरशासन प्रसिद्ध है, सिद्ध है, बहुमूल्य है, सम्यक् प्रकार से उपदिष्ट है और प्रशस्त है।
अध्ययन-६-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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