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आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण'
द्वार/अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-७ - संवरद्वार-२ सूत्र - ३६
हे जम्बू ! द्वितीय संवर सत्यवचन है । सत्य शुद्ध, शुचि, शिव, सुजात, सुभाषित होता है । यह उत्तम व्रतरूप है और सम्यक् विचारपूर्वक कहा गया है । इसे ज्ञानीजनों ने कल्याण के समाधान के रूप में देखा है । यह सुप्रतिष्ठित है, समीचीन रूप में संयमयुक्त वाणी से कहा गया है । सत्य सुरवरों, नरवृषभों, अतिशय बलधारियों एवं सुविहित जनों द्वारा बहुमत है । श्रेष्ठ मुनियों का धार्मिक अनुष्ठान है । तप एवं नियम से स्वीकृत किया गया है। सद्गति के पथ का प्रदर्शक है और यह सत्यव्रत लोक में उत्तम है । सत्य विद्याधरों की आकाशगामिनी विद्याओं को सिद्ध करने वाला है । स्वर्ग तथा मुक्ति के मार्ग का प्रदर्शक है । यथातथ्य रहित है, ऋजुक है, कुटिलता रहित है । यथार्थ पदार्थ का ही प्रतिपादक है, सर्व प्रकार से शुद्ध है, विसंवाद रहित है । मधुर है और मनुष्यों का बहुत-सी विभिन्न प्रकार की अवस्थाओं में आश्चर्यकारक कार्य करने वाले देवता के समान है।
किसी महासमुद्र में, जिस में बैठे सैनिक मूढधी हो गए हों, दिशाभ्रम से ग्रस्त हो जाने के कारण जिनकी बुद्धि काम न कर रही हो, उनके जहाज भी सत्य के प्रभाव से ठहर जाते हैं, डूबते नहीं हैं । सत्य का ऐसा प्रभाव है कि भँवरों से युक्त जल के प्रवाह में भी मनुष्य बहते नहीं हैं, मरते नहीं हैं, किन्तु थाह पा लेते हैं । अग्नि से भयंकर घेरे में पड़े हुए मानव जलते नहीं हैं । उबलते हुए तेल, रांगे, लोहे और सीसे को छू लेते हैं, हथेली पर रख लेते हैं, फिर भी जलते नहीं हैं। मनुष्य पर्वत के शिखर से गिरा दिये जाते हैं फिर भी मरते नहीं हैं । सत्य को धारण करने वाले मनुष्य चारों ओर से तलवारों के घेरे में भी अक्षत-शरीर संग्राम से बाहर नीकल आते हैं । सत्यवादी मानव वध, बन्धन सबल प्रहार और घोर वैर-विरोधियों के बीच में से मुक्त हो जाते हैं-बच नीकलते हैं । सत्यवादी शत्रुओं के घेरे में से बिना किसी क्षति के सकुशल बाहर आ जाते हैं । देवता भी सान्निध्य करते हैं।
तीर्थंकरों द्वारा भाषित सत्य दस प्रकार का है । इसे चौदह पूर्वो के ज्ञाता महामुनियों ने प्राभृतों से जाना है एवं महर्षियों को सिद्धान्त रूप में दिया गया है । देवेन्द्रों और नरेन्द्रों ने इसका अर्थ कहा है, सत्य वैमानिक देवों द्वारा भी समर्थित है । महान् प्रयोजन वाला है । मंत्र औषधि और विद्याओं की सिद्धि का कारण है-चारण आदि मुनिगणों की विद्याओं को सिद्ध करने वाला है । मानवगणों द्वारा वंदनीय है-इतना ही नहीं, सत्यसेवी मनुष्य देवसमूहों के लिए भी अर्चनीय तथा असुरकुमार आदि भवनपति देवों द्वारा भी पूजनीय होता है। अनेक प्रकार के पाषंडी-व्रतधारी इसे धारण करते हैं । इस प्रकार की महिमा से मण्डित यह सत्य लोक में सारभूत है । महासागर से भी गम्भीर है । सुमेरु पर्वत से भी अधिक स्थिर है । चन्द्रमण्डल से भी अधिक सौम्य है । सूर्यमण्डल से भी अधिक देदीप्यमान है । शरत्-काल के आकाश तल से भी अधिक विमल है । गन्धमादन से भी अधिक सुरभिसम्पन्न है। लोक में जो भी समस्त मंत्र हैं, वशीकरण आदि योग है, जप है, प्रज्ञप्ति प्रभृति विद्याएं हैं, दस प्रकार के जुंभक देव हैं, धनुष आदि अस्त्र हैं, जो भी शस्त्र हैं, कलाएं हैं, आगम हैं, वे सभी सत्य में प्रतिष्ठित हैं।
किन्तु जो सत्य संयम में बाधक हो-वैसा सत्य तनिक भी नहीं बोलना चाहिए । जो वचन हिंसा रूप पाप से युक्त हो, जो भेद उत्पन्न करने वाला हो, जो विकथाकारक हो, जो निरर्थक वाद या कलहकारक हो, जो वचन अनार्य हो, जो अन्य के दोषों को प्रकाशित करने वाला हो, विवादयुक्त हो, दूसरों की विडम्बना करने वाला हो, जो विवेकशून्य जोश और धृष्टता से परिपूर्ण हो, जो निर्लज्जता से भरा हो, जो लोक या सत्पुरुषों द्वारा निन्दनीय हो, ऐसा वचन नहीं बोलना चाहिए । जो घटना भलीभाँति स्वयं न देखी हो, जो बात सम्यक् प्रकार से सूनी न हो, जिसे ठीक तरह जान नहीं लिया हो, उसे या उसके विषय में बोलना नहीं चाहिए।
इसी प्रकार अपनी प्रशंसा और दूसरों की निन्दा भी (नहीं करनी चाहिए), यथा-तू बुद्धिमान् नहीं है, तू दरिद्र है, तू धर्मप्रिय नहीं है, तू कुलीन नहीं है, तू दानपति नहीं है, तू शूरवीर नहीं है, तू सुन्दर नहीं है, तू भाग्यवान नहीं है, तू पण्डित नहीं है, तू बहुश्रुत नहीं है, तू तपस्वी भी नहीं है, तुझमें परलोक संबंधी निश्चय करने की बुद्धि भी नहीं है, आदि । अथवा जो वचन सदा-सर्वदा जाति, कुल, रूप, व्याधि, रोग से सम्बन्धित हो, जो पीड़ाकारी या
मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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