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आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण'
द्वार/अध्ययन/ सूत्रांक विक्रियालब्धि से ईच्छानुसार रूप बनाने वाली कामरूपा अप्सराओं के समूह को, द्वीपों, समुद्रों, दिशाओं, विदिशाओं, चैत्यों, वनखण्डों और पर्वतों को, ग्रामों और नगरों को, आरामों, उद्यानों और जंगलों को, कूप, सरोवर, तालाब, वापी-वावड़ी, दीर्घिका-लम्बी वावड़ी, देवकुल, सभा, प्रपा और वस्ती को और बहुत-से कीर्तनीय धर्मस्थानों को ममत्वपूर्वक स्वीकार करते हैं । इस प्रकार विपुल द्रव्यवाले परिग्रह को ग्रहण करके इन्द्रों सहित देवगण भी न तृप्ति को और न सन्तुष्टि को अनुभव कर पाते हैं ।
ये सब देव अत्यन्त तीव्र लोभ से अभिभूत संज्ञावाले हैं, अतः वर्षधरपर्वतों, इषुकार पर्वत, वृत्तपर्वत, कुण्डलपर्वत, रुचकवर, मानुषोत्तर पर्वत, कालोदधि समुद्र, लवणसमुद्र, सलिला, ह्रदपति, रतिकर पर्वत, अंजनक
पर्वत, अवपात पर्वत, उत्पात पर्वत, काञ्चनक, चित्र-विचित्रपर्वत, यमकवर, शिखरी, कट आदि में रहनेवाले ये देव भी तप्ति नहीं पाते । वक्षारों में तथा अकर्मभमियों में और सविभक्त भरत, ऐरवत आदि पन्द्रह कर्मभूमियों में जो भी मनुष्य निवास करते हैं, जैसे-चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव, माण्डलिक राजा, ईश्वर-बड़े-बड़े ऐश्वर्यशाली लोग, तलवर, सेनापति, इभ्य, श्रेष्ठी, राष्ट्रिक, पुरोहित, कुमार, दण्डनायक, माडम्बिक, सार्थवाह, कौटुम्बिक और अमात्य, ये सब और इनके अतिरिक्त अन्य मनुष्य परिग्रह का संचय करते हैं। वह परिग्रह अनन्त या परिणामशून्य है, अशरण है, दुःखमय अन्त वाला है, अध्रुव है, अनित्य है, एवं अशाश्वत है, पापकर्मों का मूल है, ज्ञानीजनों के लिए त्याज्य है, विनाश का मूल कारण है, अन्य प्राणियों के वध और बन्धन का कारण है, इस प्रकार वे पूर्वोक्त देव आदि धन, कनक, रत्नों आदि का संचय करते हए लोभ से ग्रस्त होते हैं और समस्त प्रकार के दुःखों के स्थान इस संसार में परिभ्रमण करते हैं।
परिग्रह के लिए बहुत लोग सैकड़ों शिल्प या हुन्नर तथा लेखन से लेकर शकुनिरुत-पक्षियों की बोली तक की, गणित की प्रधानता वाली बहत्तर कलाएं सिखते हैं । नारियाँ रति उत्पन्न करने वाले चौंसठ महिलागुणों को सीखती है । कोई असि, कोई मसिकर्म, कोई कृषि करते हैं, कोई वाणिज्य सीखते हैं, कोई व्यवहार की शिक्षा लेते हैं । कोई अर्थशास्त्र-राजनीति आदि की, कोई धनुर्वेद की, कोई वशीकरण की शिक्षा करते हैं । इसी प्रकार के परिग्रह के सैकड़ों कारणों में प्रवृत्ति करते हुए मनुष्य जीवनपर्यन्त नाचते रहते हैं । और जिनकी बुद्धि मन्द है, वे परिग्रह का संचय करते हैं । परिग्रह के लिए लोग प्राणियों की हिंसा के कृत्य में प्रवृत्त होते हैं । झूठ बोलते हैं, दूसरों को ठगते हैं, निकृष्ट वस्तु को मिलावट करके उत्कृष्ट दिखलाते हैं और परकीय द्रव्य में लालच करते हैं । स्वदार-गमन में शारीरिक एवं मानसिक खेद को तथा परस्त्री की प्राप्ति न होने पर मानसिक पीड़ा को अनुभव करते हैं । कलह-लडाई तथा वैर-विरोध करते हैं, अपमान तथा यातनाएं सहन करते हैं । ईच्छाओं और चक्रवर्ती आदि के समान महेच्छाओं रूपी के समान महेच्छाओं रूपी पीपासा से निरन्तर प्यासे बने रहते हैं । तृष्णा तथा गद्धि तथा लोभ में ग्रस्त रहते हैं । वे त्राणहीन एवं इन्द्रियों तथा मन के निग्रह से रहित होकर क्रोध, मान, माया और लोभ का सेवन करते हैं।
इस निन्दनीय परिग्रह में ही नियम से शल्य, दण्ड, गौरव, कषाय, संज्ञाएं होती हैं, कामगुण, आस्रवद्वार, इन्द्रियविकार तथा अशुभ लेश्याएं होती हैं । स्वजनों के साथ संयोग होते हैं और परिग्रहवान असीम-अनन्त सचित्त, अचित्त एवं मिश्र-द्रव्यों को ग्रहण करने की ईच्छा करते हैं । देवों, मनुष्यों और असुरों-सहित इस त्रसस्थावररूप जगत में जिनेन्द्र भगवंतों ने (पूर्वोक्त स्वरूप वाले) परिग्रह का प्रतिपादन किया है । (वास्तव में) परिग्रह के समान अन्य कोई पाश नहीं है। सूत्र-२४
परिग्रह में आसक्त प्राणी परलोक में और इस लोक में नष्ट-भ्रष्ट होते हैं । अज्ञानान्धकार में प्रविष्ट होते हैं। तीव्र मोहनीयकर्म के उदय से मोहित मति वाले, लोभ के वश में पड़े हुए जीव त्रस, स्थावर, सूक्ष्म और बादर पर्यायों में तथा पर्याप्तक और अपर्याप्तक अवस्थाओं में यावत् चार गति वाले संसार-कानन में परिभ्रमण करते हैं । परिग्रह का यह इस लोक सम्बन्धी और परलोक सम्बन्धी फल-विपाक अल्प सुख और अत्यन्त दुःख वाला है।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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