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आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण'
द्वार/अध्ययन/सूत्रांक घोर भय से परिपूर्ण है, अत्यन्त कर्म-रज से प्रगाढ़ है, दारुण है, कठोर है और असाता का हेतु है । हजारों वर्षों में इससे छुटकारा मिलता है । किन्तु इसके फल को भोगे बिना छूटकारा नहीं मिलता।
इस प्रकार ज्ञातकुलनन्दन महात्मा वीरवर जिनेश्वर देव ने कहा है । अनेक प्रकार की चन्द्रकान्त आदि मणियों, स्वर्ण, कर्केतन आदि रत्नों तथा बहुमूल्य अन्य द्रव्यरूप यह परिग्रह मोक्ष के मार्गरूप मुक्ति-निर्लोभता के लिए अर्गला के समान है। इस प्रकार यह अन्तिम आस्रवद्वार समाप्त हुआ। सूत्र-२५
इन पूर्वोक्त पाँच आस्रवद्वारों के निमित्त से जीव प्रतिसमय कर्मरूपी रज का संचय करके चार गतिरूप संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं।
सूत्र-२६
जो पुण्यहीन प्राणी धर्म को श्रवण नहीं करते अथवा श्रवण करके भी उसका आचरण करने में प्रमाद करते हैं, वे अनन्त काल तक चार गतियों में गमनागमन करते रहेंगे। सूत्र - २७
जो पुरुष मिथ्यादृष्टि हैं, अधार्मिक हैं, निकाचित कर्मों का बन्ध किया है, वे अनेक तरह से शिक्षा पाने पर भी, धर्माश्रवण तो करते हैं किन्तु आचरण नहीं करते । सूत्र - २८
जिन भगवान के वचन समस्त दुःखों का नाश करने के लिए गुणयुक्त मधुर विरेचन औषध हैं, किन्तु निःस्वार्थ भाव से दिये जाने वाले इस औषध को जो पीना ही नहीं चाहते, उनके लिए क्या किया जा सकता है ? सूत्र - २९
जो प्राणी पाँच को त्याग कर और पाँच की भावपूर्वक रक्षा करते हैं, वे कर्मरज से सर्वथा रहित होकर सर्वोत्तम सिद्धि प्राप्त करते हैं।
अध्ययन-५-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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