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________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-४ - आस्रवद्वार-४ सूत्र-१७ हे जम्बू ! चौथा आस्रवद्वार अब्रह्मचर्य है । यह अब्रह्मचर्य देवों, मानवों और असुरों सहित समस्त लोक द्वारा प्रार्थनीय है । यह प्राणियों को फँसाने वाले कीचड़ के समान है । संसार के प्राणियों को बाँधने के लिए पाश और फँसाने के लिए जाल सदृश है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसक वेद इसका चिह्न है । यह अब्रह्मचर्य तपश्चर्या, संयम और ब्रह्मचर्य के लिए विघातक है । सदाचार सम्यक्चारित्र के विनाशक प्रमाद का मूल है । कायरों और कापुरुषों द्वारा इसका सेवन किया जाता है । यह सुजनों द्वारा वर्जनीय है । ऊर्ध्वलोक, अधोलोक एवं तिर्यक्लोक में, इसकी अवस्थिति है । जरा, मरण, रोग और शोक की बहुलता वाला है । वध, बन्ध और विघात कर देने पर भी इसका विघात नहीं होता । यह दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय का मूल कारण है । चिरकाल से परिचित है और सदा से अनुगत है । यह दुरन्त है, ऐसा यह अधर्मद्वार है। सूत्र - १८ उस पूर्व प्ररूपित अब्रह्मचर्य के गुणनिष्पन्न अर्थात् सार्थक तीस नाम हैं । अब्रह्म, मैथुन, चरंत, संसर्गि, सेवनाधिकार, संकल्पी, बाधनापद, दर्प, मूढ़ता, मनःसंक्षोभ, अनिग्रह, विग्रह, विघात, विभग, विभ्रम, अधर्म, अशीलता, ग्रामधर्मतप्ति, गति, रागचिन्ता, कामभोगमार, वैर, रहस्य, गुह्य, बहमान, ब्रह्मचर्यविघ्न, व्यापत्ति, विराधना, प्रसंग और कामगुण । सूत्र - १९ उस अब्रह्म नामक पापास्रव को अप्सराओं के साथ सरगण सेवन करते हैं। कौन-से देव सेवन करते हैं? जिनकी मति मोह के उदय से मूढ़ बन गई है तथा असुरकुमार, भुजगकुमार, गरुड़कुमार, विद्युत्कुमार, अग्निकुमार, द्वीपकुमार, उदधिकुमार, दिशाकुमार, पवनकुमार तथा स्तनितकुमार, ये भवनवासी, अणपन्निक, पणपण्णिक, ऋषिवादिक, भूतवादिक, क्रन्दित, महाक्रन्दित, कूष्माण्ड और पतंग देव, पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किम्पुरुष, महोरग और गन्धर्व । ये व्यन्तर देव, इनके अतिरिक्त तीर्छ-लोक में ज्योतिष्क देव, मनुष्यगण तथा जलचर, स्थलचर एवं खेचर अब्रह्म का सेवन करते हैं । जिनका चत्त मोहग्रस्त है, जिनकी प्राप्त कायभोग संबंधी तृष्णा अतृप्त है, जो अप्राप्त कामभोगों के लिए तृष्णातुर है, जो महती तृष्णा से बूरी तरह अभिभूत है, जो विषयों में गृद्ध एवं मूर्छित है, उससे होने वाले दुष्परिणामों का भान नहीं है, जो अब्रह्म के कीचड़ में फंसे हुए हैं और जो तामसभाव से मुक्त नहीं हुए हैं, ऐसे अन्योन्य नरनारी के रूप में अब्रह्म का सेवन करते हुए अपनी आत्मा को दर्शन मोहनीय और चारित्रमोहनीय कर्म के पींजरे में डालते हैं। पुनः असुरों, सुरों, तिर्यंचों और मनुष्यों सम्बन्धी भोगों में रतिपूर्वक विहार में प्रवृत्त, सुरेन्द्रों और नरेन्द्रों द्वारा सत्कृत, देवलोक में देवेन्द्र सरीखे, भरतक्षेत्र में सहस्रों पर्वतों, नगरों, निगमों, जनपदों, पुरवरों, द्रोणमुखों, खेटों, कर्बटों, छावनियों, पत्तनों से सुशोभित, सुरक्षित, स्थिर लोगों के निवास वाली, एकच्छत्र, एवं समुद्र पर्यन्त पृथ्वी का उपभोग करके चक्रवर्ती-नरसिंह हैं, नरपति हैं, नरेन्द्र हैं, नर-वृषभ हैं-स्वीकार किये उत्तरदायित्व को निभाने में समर्थ हैं, जो मरुभूमि के वृषभ के समान, अत्यधिक राज-तेज रूपी लक्ष्मी से देदीप्यमान हैं, जो सौम्य एवं निरोग हैं, राजवंशों में तिलक के समान हैं, जो सूर्य, चन्द्रमा, शंख, चक्र, स्वस्तिक, पताका, यव, मत्स्य, कच्छप, उत्तम, रथ, भग, भवन, विमान, अश्व, तोरण, नगरद्वार, मणि, रत्न, नंद्यावर्त्त, मूसल, हल, सुन्दर कल्पवृक्ष, सिंह, भद्रासन, सुरुचि, स्तूप, सुन्दर मुकुट, मुक्तावली हार, कुंडल, हाथी, उत्तम बैल, द्वीप, मेरुपर्वत, गरुड़, ध्वजा, इन्द्रकेतु, अष्टापद, धनुष, बाण, नक्षत्र, मेघ, मेखला, वीणा, गाड़ी का जुआ, छत्र, माला, दामिनी, कमण्डलु, कमल, घंटा, जहाज, सूई, सागर, कुमुदवन, मगर, हार, गागर, नूपुर, पर्वत, नगर, वज्र, किन्नर, मयूर, उत्तम राजहंस, सारस, चकोर, चक्रवाक-युगल, चंवर, ढाल, पव्वीसक, विपंची, श्रेष्ठ पंखा, लक्ष्मी का अभिषेक, पृथ्वी, तलवार, अंकुश, निर्मल कलश, भंगार और वर्धमानक, (चक्रवर्ती इन सब) मांगलिक एवं विभिन्न लक्षणों के मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 24
SR No.034677
Book TitleAgam 10 Prashnavyakaran Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages54
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 10, & agam_prashnavyakaran
File Size3 MB
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