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आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण'
द्वार/अध्ययन/ सूत्रांक हैं। लोक में सारभूत अनुभव किये जाने वाले अर्थोपार्जन एवं कामभोगों सम्बन्धी सुख के लिए अनुकूल या प्रबल प्रयत्न करने पर भी उन्हें सफलता प्राप्त नहीं होती। उन्हें प्रतिदिन उद्यम करने पर भी बड़ी कठिनाई से इधर-उधर बिखरा भोजन ही नसीब होता है । वे प्रक्षीणद्रव्यसार होते हैं । अस्थिर धन, धान्य और कोश के परिभोग से वे सदैव वंचित रहते हैं । काम तथा भोग के भोगोपभोग के सेवन से भी वंचित रहते हैं । परायी लक्ष्मी के भोगोपभोग को अपने अधीन बनाने के प्रयास में तत्पर रहते हुए भी वे बेचारे न चाहते हुए भी केवल दुःख के ही भागी होते हैं । उन्हें न तो सुख नसीब होता है, न शान्ति । इस प्रकार जो पराये द्रव्यों से विरत नहीं हुए हैं, वे अत्यन्त एवं विपुल सैकड़ों दुःखों की आग में जलते रहते हैं । अदत्तादान का यह फलविपाक है । यह इहलोक और परलोक में भी होता है । यह सुख से रहित है और दुःखों की बहुलता वाला है । अत्यन्त भयानक है । अतीव प्रगाढ कर्मरूपी रज वाला है । बडा ही दारुण है, कर्कश है, असातामय है और हजारों वर्षों में इससे पिण्ड छटता है, किन्तु इसे भोगे बिना छूटकारा नहीं मिलता।।
ज्ञातकुलनन्दन, महावीर भगवान ने इस प्रकार कहा है । अदत्तादान के इस तीसरे (आस्रव-द्वार के) फलविपाक को भी उन्हीं तीर्थंकर देव ने प्रतिपादित किया है । यह अदत्तादान, परधन-अपहरण, दहन, मृत्यु, भय, मलिनता, त्रास, रौद्रध्यान एवं लोभ का मूल है । इस प्रकार यह यावत् चिर काल से लगा हुआ है । इसका अन्त कठिनाई से होता है।
अध्ययन-३-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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