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आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण'
द्वार/अध्ययन/सूत्रांक
१० प्रश्नव्याकरण अंगसूत्र-१०- हिन्दी अनुवाद
अध्ययन-१ - आस्रवद्वार-१ सूत्र-१
उस काल, उस समय चम्पानगरी थी। उसके बाहर पूर्णभद्र चैत्य था, वनखण्ड था । उसमें उत्तम अशोकवृक्ष था । वहाँ पृथ्वीशिलापट्टक था । राजा कोणिक था और उसकी पटरानी का धारिणी था।
उस काल, उस समय श्रमण भगवान महावीर के अन्तेवासी स्थविर आर्य सधर्मा थे । वे जातिसम्पन्न, कुलसम्पन्न, बलसम्पन्न, रूपसम्पन्न, विनयसम्पन्न, ज्ञानसम्पन्न, दर्शनसम्पन्न, चारित्रसम्पन्न, लज्जासम्पन्न, लाघवसम्पन्न, ओजस्वी, तेजस्वी, वर्चस्वी, यशस्वी, क्रोध-मान-माया-लोभ-विजेता, निदा, इन्द्रियों और परीषहों के विजेता, जीवन की कामना और मरण की भीति से विमुक्त, तपप्रधान, गुणप्रधान, मुक्तिप्रधान, विद्याप्रधान, मन्त्रप्रधान, ब्रह्मप्रधान, व्रतप्रधान, नयप्रधान, नियमप्रधान, सत्यप्रधान, शौचप्रधान, ज्ञान-दर्शन-चारित्रप्रधान, चतुर्दश पूर्वो के वेत्ता, चार ज्ञानों से सम्पन्न, पाँच सौ अनगारों से परिवृत्त, पूर्वानुपूर्वी से चलते, ग्राम-ग्राम विचरते चम्पा नगरी में पधारे । संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए ठहरे।
उस काल, उस समय, आर्य सुधर्मा के शिष्य आर्य जम्बू साथ थे । वे काश्यपगोत्रीय थे । उनका शरीर सात हाथ ऊंचा था...(यावत्) उन्होंने अपनी विपुल तेजोलेश्या को अपने में ही समा रखा था । वे आर्य सुधर्मा से न अधिक द्र दूर और न अधिक समीप, घुटने ऊपर करके और नतमस्तक होकर संयम एवं तपश्चर्या से आत्मा को भावित कर रहे थे ।-पर्षदा नीकली । धर्मकथन हुआ । पर्षदा वापस लौट गई । एक बार आर्य जम्बू के मनमें जिज्ञासा उत्पन्न हुई और वे आर्य सुधर्मा के निकट पहुँचे । आर्य सुधर्मा की तीन बार प्रदक्षिणा की, उन्हें वन्दन किया, नमस्कार किया। फिर विनयपूर्वक दोनों हाथ जोड़कर अंजलि करके, पर्युपासना करते हुए बोले
भंते ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने नौवें अंग अनुत्तरौपपातिक दशा का यह अर्थ कहा है तो दसवें अंग प्रश्नव्याकरण का क्या अर्थ कहा है?
जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने दसवें अंग के दो श्रुतस्कन्ध कहे हैं-आस्रवद्वार और संवरद्वार | प्रथम और द्वितीय श्रुतस्कन्ध के पाँच-पाँच अध्ययन प्ररूपित किए हैं । भन्ते ! श्रमण भगवान ने आस्रव और संवर का क्या अर्थ कहा है ? तब आर्य सुधर्मा ने जम्बू अनगार को इस प्रकार कहासूत्र-२
हे जम्बू ! आस्रव और संवर का भलीभाँति निश्चय कराने वाले प्रवचन के सार को मैं कहूँगा, जो महर्षियोंतीर्थंकरों एवं गणधरों आदि के द्वारा निश्चय करने के लिए सुभाषित है-समीचीन रूप से कहा गया है। सूत्र-३
जिनेश्वर देव ने इस जगत में अनादि आस्रव को पाँच प्रकार का कहा है-हिंसा, असत्य, अदत्तादान, अब्रह्म और परिग्रह। सूत्र -४
प्राणवधरूप प्रथम आस्रव जैसा है, उसके जो नाम हैं, जिन पापी प्राणियों द्वारा वह किया जाता है, जिस प्रकार किया जाता है और जैसा फल प्रदान करता है, उसे तुम सूनो । सूत्र-५
जिनेश्वर भगवान ने प्राणवध को इस प्रकार कहा है-यथा पाप, चण्ड, रुद्र, क्षुद्र, साहसिक, अनार्य, निघृण,
मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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