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आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण'
द्वार/अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-२- आस्रवद्वार-२ सूत्र - ९
जम्बू ! दूसरा (आस्रवद्वार) अलीकवचन है । यह गुण-गौरव से रहित, हल्के, उतावले और चंचल लोगों द्वारा बोला जाता है, भय उत्पन्न करने वाला, दुःखोत्पादक, अपयशकारी एवं वैर उत्पन्न करने वाला है । यह अरति, रति, राग, द्वेष और मानसिक संक्लेश को देने वाला है । शुभ फल से रहित है । धूर्त्तता एवं अविश्वसनीय वचनों की प्रचुरता वाला है । नीच जन इसका सेवन करते हैं । यह नृशंस, क्रूर अथवा निन्दित है । अप्रीतिकारक है । सत्पुरुषों द्वारा निन्दित है । दूसरों को-पीड़ा उत्पन्न करने वाला है । उत्कृष्ट कृष्णलेश्या से सहित है । यह दुर्गतियों में निपात को बढ़ाने वाला है । भव करने वाला है । यह चिरपरिचित है । निरन्तर साथ रहने वाला है और बड़ी कठिनाई से इसका अन्त होता है।
सूत्र-१०
उस असत्य के गुणनिष्पन्न तीस नाम हैं । अलीक, शठ, अन्याय्य, माया-मृषा, असत्क, कूटकपटअवस्तुक, निरर्थकअपार्थक, विद्वेष-गर्हणीय, अनजुक, कल्कना, वञ्चना, मिथ्यापश्चात्कृत, साति, उच्छन्न, उत्कूल, आर्त, अभ्याख्यान, किल्बिष, वलय, गहन, मन्मन, नूम, निकृति, अप्रत्यय, असमय, असत्यसंधत्व, विपक्ष, अपधीक, उपधि-अशुद्ध और अपलोप । सावध अलीक वचनयोग के उल्लिखित तीस नामों के अतिरिक्त अन्य भी अनेक नाम हैं। सूत्र - ११
यह असत्य कितनेक पापी, असंयत, अविरत, कपट के कारण कुटिल, कटुक और चंचल चित्तवाले, क्रुद्ध, लुब्ध, भय उत्पन्न करने वाले, हँसी करने वाले, झूठी गवाही देने वाले, चोर, गुप्तचर, खण्डरक्ष, जुआरी, गिरवी रखने वाले, कपट से किसी बात को बढ़ा-चढ़ा कर कहनेवाले, कुलिंगी-वेषधारी, छल करनेवाले, वणिक्, खोटा नापने-तोलनेवाले, नकली सिक्कों से आजीविका चलानेवाले, जुलाहे, सुनार, कारीगर, दूसरों को ठगने वाले, दलाल, चाटुकार, नगररक्षक, मैथुनसेवी, खोटा पक्ष लेने वाले, चुगलखोर, उत्तमर्ण, कर्जदार, किसी के बोलने से पूर्व ही उसके अभिप्राय को ताड़ लेने वाले साहसिक, अधम, हीन, सत्पुरुषों का अहित करने वाले दुष्ट जन अहंकारी, असत्य की स्थापना में चित्त को लगाए रखने वाले, अपने को उत्कृष्ट बताने वाले, निरंकुश, नियमहीन और बिना विचारे यद्वा-तद्वा बोलने वाले लोग, जो असत्य से विरत नहीं हैं, वे (असत्य) बोलते हैं।
दूसरे, नास्तिकवादी, जो जोक में विद्यमान वस्तुओं को भी अवास्तविक कहने के कारण कहते हैं कि शून्य है, क्योंकि जीव का अस्तित्व नहीं है । वह मनुष्यभव में या देवादि-परभव में नहीं जाता । वह पुण्य-पाप का स्पर्श नहीं करता । सुकृत या दुष्कृत का फल भी नहीं है । यह शरीर पाँच भूतों से बना हुआ है । वायु के निमित्त से वह सब क्रियाएं करता है। कुछ लोग कहते हैं-श्वासोच्छ्वास की हवा ही जीव है । कोई पाँच स्कन्धों का कथन करते हैं । कोई-कोई मन को ही जीव मानते हैं । कोई वायु को ही जीव के रूप में स्वीकार करते हैं । किन्हीं-किन्हीं का मंतव्य है कि शरीर सादि और सान्त है-यह भव ही एक मात्र भव है । इस भव का समूल नाश होने पर सर्वनाश हो जाता है । मृषावादी ऐसा कहते हैं । इस कारण दान देना, व्रतों का आचरण, पोषध की आराधना, तपस्या, संयम का आचरण, ब्रह्मचर्य का पालन आदि कल्याणकारी अनुष्ठानों का फल नहीं होता । प्राणवध और असत्यभाषण भी नहीं है । चोरी और परस्त्रीसेवन भी कोई पाप नहीं है । परिग्रह और अन्य पापकर्म भी निष्फल हैं । नारकों, तिर्यंचों और मनुष्यों की योनियाँ नहीं हैं । देवलोक भी नहीं हैं । मोक्ष-गमन या मुक्ति भी नहीं है । माता-पिता भी नहीं हैं । पुरुषार्थ भी नहीं है । प्रत्याख्यान भी नहीं है । भूतकाल, वर्तमानकाल और भविष्यकाल नहीं है और न मृत्यु है। अरिहंत, चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव भी कोई नहीं होते । न कोई ऋषि है, न कोई मुनि है । धर्म और अधर्म का थोडा या बहत फल नहीं होता । इसलिए ऐसा जानकर इन्द्रियों के अनुकूल सभी विषयों में प्रवत्ति करो। न कोई शुभ या अशुभ क्रिया है । इस प्रकार लोकविप-रीत मान्यतावाले नास्तिक विचारधारा का अनुसरण करते
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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