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________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-९- संवरद्वार-४ सूत्र-३९ हे जम्बू ! अदत्तादानविरमण के अनन्तर ब्रह्मचर्य व्रत है । यह ब्रह्मचर्य अनशन आदि तपों का, नियमों का, ज्ञान का, दर्शन का, चारित्र का, सम्यक्त्व का और विनय का मूल है । अहिंसा आदि यमों और गुणों में प्रधान नियमों से युक्त है । हिमवान् पर्वत से भी महान और तेजोवान है । प्रशस्य है, गम्भीर है । इसकी विद्यमानता में मनुष्य का अन्तःकरण स्थिर हो जाता है । यह सरलात्मा साधुजनों द्वारा आसेवित है और मोक्ष का मार्ग है । विशुद्ध, निर्मल सिद्धि के गृह के समान है । शाश्वत एवं अव्याबाध तथा पुनर्भव से रहित बनानेवाला है । यह प्रशस्त, सौम्य, शिव, अचल और अक्षय पद को प्रदान करने वाला है । उत्तम मुनियों द्वारा सुरक्षित है, सम्यक् प्रकार से आचरित है और उपदिष्ट है । श्रेष्ठ मुनियों द्वारा जो धीर, शूरवीर, धार्मिक धैर्यशाली हैं, सदा विशुद्ध रूप से पाला गया है । यह कल्याण का कारण है। भव्यजनों द्वारा इसका आराधन किया गया है । यह शंकारहित है, ब्रह्मचारी निर्भीक रहता है । यह व्रत निस्सारता से रहित है । यह खेद से रहित और रागादि के लेप से रहित है। चित्त की शान्ति का स्थल है और नियमतः अविचल है । यह तप और संयम का मूलधार है । पाँच महाव्रतों में विशेष रूप से सुरक्षित, पाँच समितियों और तीन गुप्तियों से गुप्त हैं । रक्षा के लिए उत्तम ध्यान रूप सुनिर्मित कपाट वाला तथा अध्यात्म चित्त ही लगी हई अर्गला है । यह व्रत दुर्गति के मार्ग को रुद्ध एवं आच्छादित कर देने वाला है और सद्गति के पथ को प्रदर्शित करने वाला है। यह ब्रह्मचर्यव्रत लोक में उत्तम है। यह व्रत कमलों से सुशोभित सर और तडाग के समान धर्म की पाल के समान है, किसी महाशकट के पहियों के आरों के लिए नाभि के समान है, ब्रह्मचर्य के सहारे ही क्षमा आदि धर्म टिके हुए हैं । यह किसी विशाल वृक्ष के स्कन्ध के समान है, यह महानगर के प्राकार के कपाट की अर्गला के समान है । डोरी से बँधे इन्द्रध्वज के सदृश है । अनेक निर्मल गुणों से व्याप्त है । जिसके भग्न होने पर सहसा सब विनय, शील, तप और गुणों का समूह फूटे घड़े की तरह संभग्न हो जाता है, दहीं की तरह मथित हो जाता है, आटे की भाँति चूर्ण हो जाता है, काँटे लगे शरीर की तरह शल्ययुक्त हो जाता है, पर्वत से लुढ़की शिला के समान लुढ़का हुआ, चीरी या तोड़ी हुई लकड़ी की तरह खण्डित हो जाता है तथा दुरवस्था को प्राप्त और अग्नि द्वारा दग्ध होकर बिखरे काष्ठ के समान विनष्ट हो जाता है। वह ब्रह्मचर्य-अतिशय सम्पन्न है। ब्रह्मचर्य की बत्तीस उपमाएं इस प्रकार हैं-जैसे ग्रहगण, नक्षत्रों और तारागण में चन्द्रमा प्रधान होता है, मणि, मुक्ता, शिला, प्रवाल और रत्न की उत्पत्ति के स्थानों में समुद्र प्रधान है, मणियों में वैडूर्यमणि समान, आभूषणों में मुकुट के समान, वस्त्रों में क्षौमयुगल के सदृश, पुष्पों में श्रेष्ठ अरविन्द समान, चन्दनों में गोशीर्ष चन्दन समान, औषधियों-चामत्कारिक वनस्पतियों का उत्पत्तिस्थान हिमवान पर्वत है, उसी प्रकार आमर्शीषधि आदि की उत्पत्ति का स्थान, नदियों में शीतोदा नदी समान, समुद्रों में स्वयंभूरमण समुद्र समान | माण्डलिक पर्वतों में रुचकवर पर्वत समान, ऐरावण गजराज के समान । वन्य जन्तुओं में सिंह के समान, सुपर्णकुमार देवों में वेणुदेव के समान, नागकुमार जाति के धरणेन्द्र समान और कल्पों में ब्रह्मलोक कल्प के समान यह ब्रह्मचर्य उत्तम है। जैसे उत्पादसभा, अभिषेकसभा, अलंकारसभा, व्यवसायसभा और सुधर्मासभा, इन पाँचों में सुधर्मासभा श्रेष्ठ है । जैसे स्थितियों में लवसप्तमा स्थिति प्रधान है, दानों में अभयदान के समान, कम्बलों में कृमिरागरक्त कम्बल के समान, संहननों में वज्रऋषभनाराच संहनन के समान, संस्थानों में चतुरस्र संस्थान के समान, ध्यानों में शुक्लध्यान समान, ज्ञानों में केवलज्ञान समान, लेश्याओं में परमशुक्ल लेश्या के समान, मुनियों में तीर्थंकर के समान, क्षेत्रों में महाविदेहक्षेत्र के समान, पर्वतों में गिरिराज सुमेरु की भाँति, वनों में नन्दनवन समान, वृक्षों में सुदर्शन जम्बू के समान, अश्वाधिपति, गजाधिपति और रथाधिपति राजा के समान और रथिकों में महारथी के समान समस्त व्रतों में ब्रह्मचर्यव्रत सर्वश्रेष्ठ है। इस प्रकार एक ब्रह्मचर्य की आराधना करने पर अनेक गुण स्वतः अधीन हो जाते हैं । ब्रह्मचर्यव्रत के मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 44
SR No.034677
Book TitleAgam 10 Prashnavyakaran Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages54
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 10, & agam_prashnavyakaran
File Size3 MB
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