Book Title: Yugpradhan Jinchandrasuri Charitam
Author(s): Bhanvarlal Nahta
Publisher: Abhaychand Seth

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Page 71
________________ युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि-चरितम् याभ्या माह्वायितो दूर-देशादत्र गुरुर्वरः। ययौ साह्याग्रहाद्राज-प्रासादं प्रत्यहं गुरुः ॥१६८।। धर्म देशनया तस्मै, समीचीन मदर्शयत् । स विशेष स्वरूपत्व, महिंसा जैन धर्मयोः ।।१६६॥ ततो त्यन्तमभूत्साही, दयालु धर्म तत्परः । प्रशंसति सदासोऽपि, स्वसभायां गुरोर्गुणान् ॥२००।। श्वेताम्बरा मया दृष्टाः सन्ति वाचंयमा घनाः । अनेक धर्म नेतृणां, संसर्गो विहितो भृशम् ।।२०१॥ एतत्समो गुणी त्यागी, शान्तो वैराग्यवान्दमी। विद्वान्निरभिमानी न, कोऽपि दृष्टो मया जने ।।२०२।। एतद्दर्शन संसर्गान्नोजन्म सफली भवन् । साही बृहद्गुरुत्वेन, सदाह्वयति सद्गुरुम् ।।२०३।। तेथ वृहद्गुरुत्वेन, ख्यातिं गताः पुरेऽखिले। श्री साहि परिवारोऽपि, सर्वो भक्तो भवद्गुरोः ॥२०४॥ अन्यदा गुरुणा साद्ध, कुर्वन चर्चा सुधार्मिकाम् । साही गुरोः पुरो भक्त्या, मंचच्छतैक मुद्रिकाः ॥२०५।। साध्वाचार स्वरूपं स. प्रदर्शयन गुरुर्जगौ। समग्रानर्थ दोषेक-स्थानं द्रव्यं प्रविद्यते ॥२०६॥ जीवहिंसा मृषावादा-दत्ताब्रह्म परिग्रहम् । प्रत्यक्त सर्वथा याव जीवं यैर्नव कोटिभिः ॥२०७॥ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International www.jainelibrary.org

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