Book Title: Yugpradhan Jinchandrasuri Charitam
Author(s): Bhanvarlal Nahta
Publisher: Abhaychand Seth
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युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि-चरितम् महान्तंसाहसंकृत्वा विहृत्य मुनिभिः समम् । स्वल्पैरेव दिनैः प्रापुः सूरीन्द्रा आगरापुरम् ॥१८॥
त्रिभिर्विशेषकम् ।। साहिसभा समागत्यमिमिलुः साहिना समम् । साह्यपिहर्षितो दृष्ट्वा युगप्रधान सद्गुरुम् ॥१७६।। पूज्यदर्शनमात्रेण साहिकोप उपाशमत् । नम्रतापूर्वकं वार्ता स चक्र गुरुणा समम् ॥१८०॥ तेनोक्त भवता वृद्धा-वस्थायां देश गुर्जरात् गुरो कथमकार्यत्रा-गमनस्य परिश्रमम् ॥१८॥ पूज्यःप्राह भवद्भयोत्रा-शिषोदानार्थमागतः। अहं सोवगहोभाग्यमिदमेऽस्ति जगद्गुरो ॥१८२।। भवतामियतो दूरादागमने परिश्रमम् । अभविष्यदतोगत्वा विश्रभ्यतां च साम्प्रतम् ॥१८ ।। पूज्यो वगधुना नास्ति विश्राम करण क्षणः । या भवत्फुरमानेना-शांति ने विसर्पिणी ॥१८४।। तांनिवारियितुमेऽत्रागमनमभवद्भवेत् । नैवैकस्यापराधेन दण्डितः सकलोगणः ॥१८॥ स्व स्व कर्मवशेनात्र सर्वे भवन्ति जन्तवः। एक प्रकृतिवन्तो न किन्तु भिन्न स्वभाविनः ॥१८६॥ भवति कर्म वैचित्र्यात्स्खलना महतामपि । का कथा प्राकृतानान्तु सम्राडतो विचार्यताम् ॥१८७।।
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