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गाथा-७
उत्तर - 'ण मुणेइ' नहीं जानता । यहाँ जानता नहीं और ऐसा मानता है । यह कहते हैं। समझ में आया ? दो ही बात ।
भगवान आत्मा ज्ञान-दर्शन, आनन्द का धाम अकेला, वह भी पूर्ण आनन्द, ज्ञान...... यहाँ अपूर्ण पर्याय की बात नहीं है । पूर्ण भगवान आत्मा शुद्धस्वभाव एकरूप अभेद चिदानन्द प्रभु – ऐसे आत्मा की श्रद्धा न करता हुआ, न मानता हुआ, इतनी बड़ी सत्ता के स्वीकार को स्वीकार में न करता हुआ, अल्पज्ञ राग-द्वेष की पर्याय की सामग्री का स्वीकार करके वहाँ मोहित हुआ, मूर्च्छित होकर पड़ा है, उसे बहिरात्मा कहते हैं । अन्तर स्वभाव की प्रतीति नहीं और बाह्य की प्रतीति है, उसे बहिरात्मा कहते हैं । कहो, समझ में आया इसमें ?
अन्तर स्वभाव महान परमात्मस्वरूप है, परिपूर्ण आनन्द, ज्ञानादि है, उसकी श्रद्धा और ज्ञान नहीं करता। ‘परु अप्पा ण मुणेइ' ऐसा। अपना परमात्मस्वरूप जो पूर्ण शुद्ध, ध्रुव परिपूर्ण है, उसे नहीं जानता परन्तु 'मिच्छादंसणमोहियउ' बाहर में मोहित हो गया है । 'सो बहिरप्पा' – उसे भगवान बहिरात्मा कहते हैं। देखो, 'जिणभणिउ' है न ? 'जिण' अर्थात् वीतराग भगवान के मुख से ऐसी बात आयी, ऐसे जीवों को बहिर उनका बाहर में ही लक्ष्य और उसका अस्तित्व उन्होंने माना है। समझ में आया ? कहीं पुण्य की सामग्री कम-ज्यादा मिले, पाप की सामग्री प्रतिकूल कम-ज्यादा मिले, अन्दर में शुभाशुभभाव कम-ज्यादा हो और ज्ञान का हीनाधिकपना परलक्ष्य से उघाड़ हो, उसे आत्मा मानते हैं। समझ में आया ? उतना आत्मा नहीं... उसे आत्मा मानते हैं । परन्तु भगवान परिपूर्ण स्वरूप अन्दर, परमेश्वर त्रिलोकनाथ तीर्थंकरदेव ने जिसे आत्मा कहा है, वह आत्मा तो परमशुद्ध चिदानन्दस्वरूप है, परमात्मस्वरूप वह वस्तु है । ऐसी वस्तु का स्वीकार न करता हुआ, आदर न करता हुआ, आश्रय नहीं करता हुआ, परसन्मुखता के झुकाव में उसकी बुद्धि बाहर मारी गयी है। समझ में आया ? विद्यमान पदार्थ भगवान पूर्ण प्रभु - ऐसे विद्यमान को न स्वीकार करके एक क्षणिक दशा ज्ञान की, दर्शन की, या क्षणिक राग की विकारी (दशा) या क्षणिक संयोगी दशा, उसे अपना मानता है, वह मिथ्यादर्शन के मूढ़पने के कारण मानता है । कहो, समझ में आया ? वही बहिरात्मा है ।