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गाथा-७
है और बहिरात्मा की शक्ति भी पड़ी है। बहिरात्मा बाह्य है और रागादि को अपना मानता है परन्तु अन्दर शक्ति में अन्तरात्मा, परमात्मा की सब शक्ति पड़ी है। ऐसे तीनों प्रकार की शक्ति प्रत्येक जीव में है। उसमें से परमात्मा का स्वरूप जानकर, अन्तरात्मा होकर, बहिरात्मा को छोड़कर, परमात्मा को प्राप्त करने को ध्यान करना – ऐसा उसका सार है। अब सातवीं – बहिरात्मा का स्वरूप -
मिच्छादसणमोहियउ परू अप्पा ण मुणेइ।
सो बहिराप्पा जिणभणिउ पुण संसारू भमेइ॥७॥ मिच्छादंसणमोहियउ लो! यह शब्द आया। उसमें मिथ्यादर्शन था न? उस मिथ्यादर्शन से मोही जीव.... लो, यहाँ कर्म निकाल दिये। यहाँ नहीं लिखा। अनादि काल का आत्मा मिथ्या श्रद्धान से मोहित हुआ राग को अपना स्वरूप मानता है, पुण्य के फल को अपना मानता है, पाप के फल में दु:खी हूँ – ऐसा मानता है। इस प्रकार अनादि काल से भ्रम में ज्ञान के क्षयोपशम से ज्ञान का कुछ विकास हुआ तो पण्डिताई (करके) मैं पण्डित हूँ – ऐसा मानता है; क्षयोपशम कम हो तो दीन हूँ – ऐसा मानता है। यह सब मिथ्यादर्शन के कारण मोहित हुए जीव हैं। समझ में आया?
मेरा स्वरूप एक समय में त्रिकाल शुद्ध चैतन्य द्रव्यस्वभाव है, उसका अन्तर में अनुभव – वेदन, आश्रय नहीं करता। मिथ्याश्रद्धा द्वारा कर्म के उदय से प्राप्त सामग्री - बाह्य और अभ्यन्तर.... समझ में आया? अभ्यन्तर अर्थात् क्या? राग-द्वेष । घातिकर्म के निमित्त से अन्दर हुआ पुण्य-पाप, राग-द्वेष का भाव। अघाति से प्राप्त बाहर में अनुकूल प्रतिकूल संयोग । इन सब चीजों में मैंपना स्वीकार करता हुआ, इनमें मैं हूँ, यह मेरे हैं - ऐसा मानता हुआ, मिथ्यादर्शन से मोहित हुआ है।
'परु अप्पा ण मुणेइ' परमात्मा को नहीं जानता.... समझ में आया? अपना स्वरूप शुद्ध चिदानन्दमूर्ति अनन्त दर्शन-ज्ञान सम्पन्न, समृद्धिवाला – वह कौन है, उसे नहीं जानता। मात्र बाहर की अल्पज्ञ अवस्था, राग अवस्था और बाह्य अनुकूल-प्रतिकूल संयोगों में अपने अस्तित्व का स्वीकार, वहाँ दृष्टि पड़ी है। समझ में आया? कहो, थोड़ा पैसा मिले, वहाँ कहता है (कि) हम पैसेवाले हैं... पैसावाला नहीं - ऐसा कहते हैं।