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गाथा-६
छह खण्ड का राजा, छियानवें हजार स्त्रियों के वृन्द में पड़ा हुआ, उसे अन्तर में बाह्य त्याग न दिखने पर भी, अन्तर में राग का विवेक और राग का त्याग वर्तता है । राग का विवेक अर्थात् भिन्न और आत्मा की एकता में उसका त्याग वर्तता है । बहिरात्मा को बाह्य त्याग नग्न दिगम्बर (हुआ हो), महा अट्ठाईस मूलगुण पालन करे, चमड़ी उतार कर नमक छिड़कने पर भी क्रोध न करे, अन्तर में उसे राग का अत्याग और राग के साथ एकत्वबुद्धि पड़ी है, वह बहिरात्मा, बाह्य बुद्धि में प्रसन्न होनेवाला है। समझ में आया ? आहा... हा.... !
शरीर की निरोगता मुझे साधन होगी... शरीर की निरोगता मेरे आत्मा को साधन होगी, रोग के समय मुझे प्रतिकूलता थी, अब शरीर में कुछ निरोगता हुई, कुछ पैसे इत्यादि की व्यवस्था हुई, अब मैं निर्विघ्न धर्मध्यान कर सकूँगा । अब क्या है ? परन्तु लड़के -बड़के ठिकाने लगे हों तो बढ़िया रहे, लो ! नहीं (तो) वहाँ उनके पास जाना पड़ेगा। आहा...हा... ! आत्मा के अतिरिक्त रजकण से लेकर सभी प्रकार की बाह्य रिद्धियाँ, कहीं उनमें अनुकूलता मान ली जाये और प्रतिकूलता के संसर्ग में कहीं उसके कारण अरुचि हो, उसे बुद्धि बहिरात्म है। बाहर में रुकी हुई बुद्धि है । आहा... हा...! यह तो स्वयं आचार्य कहेंगे आगे, हाँ ! यहाँ तो अभी साधारण बात करते हैं ।
भ्रान्ति अथवा शंकारहित होकर..... अब तीन में से भ्रान्ति और शंकारहित होकर बहिरात्मपना छोड़ दे..... इन शुभाशुभभाव से लेकर पूरे जगत की सामग्री, इस अनुकूल - प्रतिकूलता में उल्लसित वीर्य को छोड़ दे । आहा... हा... ! इस हर्ष के भाव में चढ़ा हुआ तेरा भाव वह बहिरात्मा है, कहते हैं । प्रतिकूल सामग्री में खेद में चढ़ा हुआ तेरा भाव भी हरात्मा है। समझ में आया ?
भ्रान्ति अथवा शंकारहित होकर बहिरात्मपना छोड़ दे, अन्तरात्मा होकर...... भगवान आत्मा शुद्ध आनन्दस्वरूप है – ऐसी दशा को प्राप्त करके, अन्तरात्मा की दशा को बहिरात्मा की श्रद्धा - ज्ञान से त्याग करके, श्रद्धा - ज्ञान में बहिरात्मा बुद्धि का त्याग करके, श्रद्धा-ज्ञान में बहिरात्मा को ग्रहण करके परमात्मा का ध्यान कर । अन्तरात्मा का ध्यान करने का नहीं रहा फिर । समझ में आया ?
(मुमुक्षु : प्रमाण वचन गुरुदेव)