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बहिरात्मा का स्वरूप मिच्छादसणमोहियउ परू अप्पा ण मुणेइ। सो बहिराप्पा जिणभणिउ पुण संसारू भमेइ॥७॥
मिथ्यामति से मोहिजन, जाने नहिं परमात्म।
भ्रमते जो संसार में, कहा उन्हें बहिरात्म॥ अन्वयार्थ – (मिच्छादसणमोहियउ) मिथ्यादर्शन से मोही जीव (परू अप्पा ण मुणेइ) परमात्मा को नहीं जानता (सो बहिरप्पा) यही बहिरात्मा है (पुण संसार भमेइ) वह बारम्बार संसार में भ्रमण करता है। (जिण भणिउ) ऐसा श्री जिनेन्द्र ने कहा है।
वीर संवत २४९२, ज्येष्ठ कृष्ण ५,
गाथा ७ से ९
बुधवार, दिनाङ्क ०८-०६-१९६६ प्रवचन नं. ३
योगसार, छठवीं गाथा चली। तीन प्रकार के आत्मा का वर्णन चला – परमात्मा, अन्तरात्मा और बहिरात्मा। जो परमात्मा.... यद्यपि परमात्मा जो है, उसकी शक्ति में अन्दर अन्तरात्मा और बहिरात्मा तो है परन्तु प्रगट पर्याय की अपेक्षा से यह बात ली है। पर झायहि अंतरसहिउ बाहिरू चयहि णिभंतु। परमात्मा का स्वरूप जानकर, अन्तरात्मा होकर, बहिरात्मपना छोड़कर, परमात्मा का ध्यान करना – यह इसका सार है। तीन प्रकार के (आत्मा) बतलाकर हेतु क्या? यह तीन प्रकार की प्रगट पर्याय की बात है। समझ में आया? परमात्मा हुए, उनकी शक्ति में तो बहिरात्मा, अन्तरात्मा है परन्तु प्रगटरूप से पर्याय है, उसकी यहाँ बात है न?
अन्तरात्मा है, उसे आत्मा का भान हुआ, उसे परमात्मा की शक्ति भी अन्दर पड़ी