Book Title: Yog Granth Vyakhya Sangraha
Author(s): Kirtiyashsuri
Publisher: Suri Ramchandra Shatabdi Samiti

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Page 60
________________ तीर्थकरः] [51 | नाम . व्याख्या गाथा 2/16 69 तीर्थकृतां जन्म-दीक्षा-ज्ञान-निर्वाणस्थानम् / भावतीर्थं तु चतुर्वर्णः श्रमणसङ्घः प्रथमगणधरो वा / यो.शा. येनेह जीवा जन्मजरामरणसलिलं मिथ्यादर्शनाविरतिगम्भीरं महाभीषणकषायपातालं सुदुर्लद्ध्यमोहावर्त्तरौद्रं विचित्रदुःखौघदुष्टश्वापदं रागद्वेषपवनविक्षोभितं संयोगवियोगविचीयुक्तं प्रबलमनोरथ- ' वेलाकुलं सुदीर्घं संसारसागरं तरन्ति तत्तीर्थमिति / एतच्च यथावस्थितसकलजीवादिपदार्थप्ररूपकं अत्यन्तानवद्यान्याविज्ञातचरणकरणक्रियाऽऽधार त्रैलोक्यगतशुद्धधर्मसम्यपद्युक्तमहासत्त्वाश्रयं अचिन्त्यशक्तिसमन्विताविसंवादिपरमबोहित्थ कल्पं प्रवचनं सङ्घो वा / ल.वि. = सम्पूर्ण चतुर्विधश्रमणसङ्घः / गु. = अनेकसत्त्वहितः, निरुपमसुखसंजननः, ___अपूर्वचिन्तामणिकल्पः / कू.. = प्रकृष्टपुण्यानुबन्धिपुण्यफलभूतः / अ. = तित्थाइसिद्धभेया संघे सइ हुंति तित्थसिद्ध त्ति / विं. = गाढसंक्लिष्टपरिणामः / उ.र.. = आत्यन्तिकया सदनुष्ठानकरणरुचिः / पं. = असमर्थः - बालवृद्धादिलक्षणः / उ.प. = असार: अभिलषितफलासाधकत्वात् / यो.वि. = बाह्याभ्यन्तरोपधिशरीरान्नपानाद्याश्रयो भावदोषपरित्यागस्त्यागः / त.भा. = अविवेकपरित्यागात् त्यागी.... // 44 // मार्ग. = अविवेगपरिच्चाया चाई जं निच्छयनयस्स // 94 / / पं.व. 1/206 तीर्थकरः 13 25/2 19/2 22 तीर्थसिद्धः तीव्रभावः तीव्र श्रद्धा तुच्छ: 4/32 874 त्यागः त्यागी 44 त्रिकोटिपरिशुद्धम् = तिसृभिः कोटिभिः परिशुद्धम्, * रागद्वेषमोहलक्षणाभिः, कृतकारितानुमतभेदभिन्नहननपचनक्रयणरूपाभिः,

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