Book Title: Yog Granth Vyakhya Sangraha
Author(s): Kirtiyashsuri
Publisher: Suri Ramchandra Shatabdi Samiti
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________________ धृष्टाः ] [61 | नाम . व्याख्या गाथा धृष्टाः धैर्यम् 4/4 52 ध्याता = कुवासनास्तब्धदोषाः / गु. = व्यसनोपनिपातेऽपि प्रतिज्ञातोऽविचलनम् / यो.बि. 411 = भयहेतूपनिपातेऽपि निर्भयत्वम् / षो. = व्यसनाशनिसन्निपातेऽप्यविचलितप्रकृतिभावः / यो.बि. = अमुञ्चन् प्राणनाशेऽपि संयमैकधुरीणताम् / / परमप्यात्मवत् पश्यन् स्वस्वरूपापरिच्युतः // 2 // उपतापमसंप्राप्तः शीतवातातपादिभिः / पिपासुरमरीकारि योगामृतरसायनम् // 3 // रागादिभिरनाक्रान्तं क्रोधादिभिरदूषितम् / आत्मारामं मनः कुर्वन्निर्लेपः सर्वकर्मसु // 4 // विरतः कामभोगेभ्यः स्वशरीरेऽपि निःस्पृहः / संवेगहृदनिर्मग्नः सर्वत्र समतां श्रयन् // 5 // नरेन्द्रे वा दरिद्रे वा तुल्यकल्याणकामनः / अमात्रकरुणापात्रं भवसौख्यपराङ्मुखः // 6 // सुमेरूरिव निष्कम्पः शशीवानन्ददायकः / समीर इव निःसङ्गः सुधीर्ध्याता प्रकाश्यते // 7 // यो.शा. 7/7 = मनसश्चेन्द्रियाणां च जयाद्यो निर्विकारधीः / धर्मध्यानस्य स ध्याता शांतो दांतः प्रकीर्तितः // 62 // अध्या. 16/62 = सुखासनसमासीनः सुश्लिष्टाधरपल्लवः / नासग्रन्यस्तदृग्द्वन्द्वो दन्तैर्दन्तानसंस्पृशन् // 135 // 4/135 प्रसन्नवदनः पूर्वाभिमुखो वाप्युदग्मुखः / अप्रमत्तः सुसंस्थानो ध्याता ध्यानोद्यतो भवेत् // 136 // = उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम् / त.भा. 9/27 = उपयोगे विजातीयप्रत्ययाव्यवधानभाक् / शुभैकप्रत्ययो ध्यानं सूक्ष्माभोगसमन्वितम् // 11 // द्वा. 18/11 = जो किर जयणापुव्वो वावारो सो ण झाणपडिवक्खो / सो चेव होइ झाणं जुगवं मणवयणकायाणं // अ.म. = ध्यातिर्ध्यानम्-अन्तर्मुहूर्तमात्रं चित्तैकाग्रता / पं. 19/3 = ध्यानं चैकाग्र्यसंवित्तिः, समापत्तिस्तदेकता // 2 // ज्ञा. 30/2 = ध्यायते-चिन्त्यतेऽनेन तत्त्वम् इति ध्यानम्, एकाग्रचित्तनिरोध इत्यर्थः / ध्या. ध्यानम्

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