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बृहज्जैनवाणीसग्रह
१७६ (दहीको धारा) सौषधी मिलायके, भरि कंचन भंगार । * जजौ चरण त्रयधार दे, तारतार भवतार ॥९॥
(सौषधिकी धारा) ___७९-अथ जलाभिषेक वा प्रक्षाल
करनेका पाठ प्रक्षाल करते समय बोलना। जय जय भगवंते सदा, मंगल मूल महान । वीतराग सर्वज्ञ प्रभु, नौं जोरि जुगपान ॥ ____ ढाल मंगलकी छंद अडिल्ल और गीता।।
श्रीजिन जगमें ऐसो, को बुधवंत जू । जो तुम गुण वरननि करि पावै अंत जू ॥ इन्द्रादिक सुर चार ज्ञानधारी
मुनी । कहि न सकै तुम गुणगण हे त्रिभुवनधनी ॥ * अनुपम अमित तुमगणनिवारिध, ज्यों अलोकाकाश है। किमि धरै हम उर कोषमें सो अकथगुणमणिराश है ॥पै ।
जिनप्रयोजन सिद्धिकी तुम नाममें ही शक्ति है । यह चित्त* में सरधान यातै नाम हीमें भक्ति है ॥१॥ ज्ञानावरणी दर्शन
आवरणी भने । कर्ममोहनी अंतराय चारों हने ॥ लोकालोक विलोक्यो केवलज्ञानमें । इन्द्रादिकके मुकुट नये सुर
थानमें ॥ तव इन्द्र जान्यो अवधितै, उठि सुरनयुत बंदत * भयो। तुम पुन्यको प्रेरयो हरी है मुदित धनपतिसौं चयो।