Book Title: Vruhhajain Vani Sangraha
Author(s): Ajitvirya Shastri
Publisher: Sharda Pustakalaya Calcutta

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Page 407
________________ १५३० वृहज्जनवाणीसंग्रह HAR AAAAAAAAAAAAA समरथ, नाशक तम मिथ्याती॥ ४ ॥ सेवकको तारो प्रभु हितकर, अपनो विरद निभाती ॥५॥ (३७) ___ क्या हट माड़ी जदुवंशी पलटजा ॥टेका। व्याहन आये अति उमगाये, श्रीजिनराज मनाये झपटआ॥१॥ सज वजके जादों संग आये, यश पुकार सुनाये अटकजा ॥ २ ॥ भूषण में बसन सबै तज दीने, गिरनारी तपधारो झपटजा ॥शा प्रभु संग राजुलने तपलीना, सेवकको प्रभु तारो लटकजा ॥४॥ ___ ३६८-पद परजमें। येजी प्राणी प्रीत जगतकी झूठी ।।टेका। मित्र कलित्र पुत्र कुटंब संग, बंधु गरजकी मूटी (मूठी) ॥१॥ जा छिन गरज सरे । ना जाकी, तुरत मिताई टूटी ॥२॥ प्राण छुटे कोऊ ना छीवे, * जैसी पातर जूठी ॥३॥ प्रीति करो जिनराज चरणसे, छाडौं। कुमति कलूटी ॥४॥ सेवकको रत्नत्रय दीजे, मुकति महलकी । खूटी ॥५॥ __३६६-राग-भैरवी। मन लागा हो जिन चरननसों ।। टेक॥ और कुदेव मनाहिं न भावे, जिन चरचा सुन कर्ननसों ॥१॥ प्रभुजी ऐसी किरपा कीजे, पाउं विजय अरि कर्मनसों ॥२॥ * तुमही स्वामी वैद्य धानंतर, लेव बचा भव मनसों ॥३॥ * तुम गुण गणधर कह न सकत ही, पार न पाऊं वर्णनसों ॥४॥ . सेवक अर्ज करत कर जोरे, राख लेहु भव भर्मनसों ॥५॥ KAKAR

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