Book Title: Vruhhajain Vani Sangraha
Author(s): Ajitvirya Shastri
Publisher: Sharda Pustakalaya Calcutta
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। ५३२ वृहज्जैनवाणीसंग्रह
शुद्धपयोग दशागह लीनी, रागद्वेष विकलप तजली ॥४॥ धन्न घरी सेवक जब पावे, या विध अनुभव मुकतिगली ॥५॥
___ ३७५-राग-जंगला! । मैं नमों प्रभुकर सीसधार, भव जलधि क्षार सो तार ताराटेका
तुवचरण कमल नख दुति अपार, लख सुरनर पूजित बारवार हर मिस मुख उचरों नामसार, मेरे वसु अरिचिर जार जार। नहिं फुरतशक्तिगति भ्रमतचार, भवभवविध डोलत लारलार॥ तुम विन नहिं दीसत शरणदार, गदरागमहारिपु मारमार॥ लीजे सेवकको अब उवार, ज्यों तारे जनप्रण धार धार ॥
३७६-दादरा। सुनो मेरे प्रभुजी अरजी हमार ।। टेक ॥ तुमको भूल भवोदधि भटको जामन मरण अपार ॥१॥ भागउदय मानुष गति पाई जिन चरनन चित धार ॥२॥ । सेवकको शिवसुख अब दीजे षट द्वय दुष्टन टार ॥३॥
(३७७) न कोउ कछू कहे मन लागा जी ॥टेकजव लागा विष* यनतै भागा अनुभव रसमें पागाजी ॥१॥ व्याधि तो मोह-* * समाधिसी दीसे भासा दुख सुख रागाजी ॥२॥ सोता नादि
कालका भ्रममें मोह नींद तज जागाजी ॥२॥ चिर अरि विधको नाश देव जिन सेवकको शिव जागाजी ॥४॥
(३७८) प्रभु विनको मोरी लेय खबरियां ।।टेका। देव हरो जन्मत। प्रदुमनको रक्षक कौन हतो वा विरियां ॥१॥ कौन सहाय । ** *
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