Book Title: Vruhhajain Vani Sangraha
Author(s): Ajitvirya Shastri
Publisher: Sharda Pustakalaya Calcutta

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Page 408
________________ वृहज्जैनवाणीसंग्रह nonAAAAAAAAAAAAAAAAAA 4nAAMANAMA000mAAAAAAA. ३७०-सोरठ। । मै तो जांऊछैगढ गिरिनार,सहेली मारी रोको न डागरियाटेक कौन चूक मोरी प्रभु लख ली, पाडी न मांवरिया ॥ १ ॥ नेम नवल बिल कौन उबारे, डूबै छै नावरिया ॥२॥ गृहतजके राजुल तपलीनो, जहँ प्रभु सावरिया ॥३॥ सेवकको भवदघि सों तारो, कर गह जा विरिया ॥ ४ ॥ ___३७१--राग झमोटी। क्या भूलमें है श्रीजिन भजले,तेरी दो दिनकी है आवरिया।।टेक नरभव कुल श्रावगको पायो, धरम साथ लेया विरियां ॥१॥ वृद्धापन तेरी देह थकेगी, तब क्या पालोगे किरियां ॥२॥ रिपुकाल आयुनिधि लूटकरे,तव काको शरणा वा परियां ॥३॥ १ याते अरजी जिनराज सुनो, सेवकको तारो गह बहियां ॥४॥ ३७३-लावनी सोरठ। सुनो सुनो मेरी सुमति जिनेश, मुझ दीजे सुमति हमेशा ॥टेका जवते वा बिछुरी स्यानी, तवतें कुमता अगवानी। * सुधि मोखपंथको रोका, मुह भूलत राह न टोका ॥ . अब अरज करों प्रभु पासा ॥मुझ०॥ टेक ॥ ३७४-कजली। आतम आपको निहारे, खुटे मोह कजली ।। टेक ॥ * चिरदासीसों भये उदासी, प्रीतिकरी राधा लजली ॥१॥ मिथ्या बुध भोरीकी डोरी, टोरी निज परणति भजली॥ २ ॥ देह नेह धन मित्र बंधु तिय, अथिर लखेज्यों गति बिजली ॥३॥ *- *-*- * - *

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