Book Title: Vruhhajain Vani Sangraha
Author(s): Ajitvirya Shastri
Publisher: Sharda Pustakalaya Calcutta
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*KAREKARRARY
वृहज्जैनवाणीसंग्रह
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विधिठग दुविध तरस ॥ शिचमग ॥२॥ दौल अवाची । संपत सांची, पाय रहै थिर राचि स्वरस ।। शिव ॥३॥
(२६३) मै आयो जिन सरन तिहारी । मै चिर दुखी विभाव भावतै, स्वाभाविक निधि आप विसारी ॥ मैं ॥१॥ रूप * निहार धार तुम गुन सुन, वैन सुनत भवि शिवमगचारी। । यो मम कारजके कारन तुम तुमरी सेव एव उरधारी |मै
मिल्यो अनंत जन्मते अवसर, अब विनऊं हे भवसरतारी।। * परमें इष्ट अनिष्ट कल्पना, दौल कहै झट मेट हमारी |मै॥
__प्यारी लागै म्हानै जिन छवि थारी ॥ प्यारी० ॥ टेक ॥ परमनिराकुल-पद-दरसावत, बर विरागता-कारी । पट-भष्न-बिन पै सुंदरता, सुरनरमुनिमनहारी ॥ प्यारी० ॥१॥ जाहि विलोकत भवि निजनिधि-लहि, चिरविभावता टारी।। निरनिमेषत देख सचीपति, सुरता, सफल विचारी ॥ प्यारी० ॥२॥ महिमा अकथ होत लखि जाको, पशुसम है समकितधारी । दौलत रहो ताहि निरखनकी, भवभव टेव हमारी॥ प्यारी० ॥३॥
(२६५) * दीठा भागनतें जिन पाला, मोहनाशनेवाला। दीठा० ॥टेका। शुभग निसंक रागविन यातें, वसन न आयुध वाला। दीठा० ।।९।। जास ज्ञानमें जुगपत भासत, सकल पदारथमाला दीठा० ॥२॥ निजमें लीन हीन इच्छा पर, हितमत ।

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