Book Title: Vruhhajain Vani Sangraha
Author(s): Ajitvirya Shastri
Publisher: Sharda Pustakalaya Calcutta

View full book text
Previous | Next

Page 387
________________ AA । ५०२ वृहज्जैनवाणीसंग्रह महाव्रत दुर्द्धर धारे, राखी प्रकृति पचासी ॥ बंदो० ॥२॥ जाके दरशन ज्ञान विराजत, लहि वीरज सुखरासी । जाकों बंदत त्रिभुवननायक, लोकालोक-प्रकाशी ।। बंदो० ॥३॥ * सिद्ध शुद्ध पर-मातम राजै, अविचल-थान निवासी । धानत। मन-अलि प्रभुपदपंकज,-रमत रमत अघ जासी ॥वंदों०॥ २७८-ग वसंत। मोहि तारो हो देवाधिदेव, मै मनवचतनकरि करों सेव टेका। तुम दीनदयाल अनाथ-नाथ, हम हूको राखहु आप * साथ मोहि० ॥१॥ यह मारवाड संसार देश, तुम चरण* कल्पतरु हरकलेश ।।मोहि० ॥२॥ तुम नाम रसायन जीव पीय, धानत अजरामर भवतरीय मोहि० ॥३॥ २७९-राग वसं। ___तुम ज्ञानविभव फूली वसंत, यह मधुकर सुखसों रमंत तुम ॥टेका। दिन बडे भए वैरागभाव, मिथ्यामत रजनीको घटाव । तुम० ॥१॥ बहु फूली फैली सुरुचि वेल, ज्ञाता* जन समता संग केलि ॥ तुम ॥२॥ धानत पानी पिकमधुर* रूप, सुरनर पशु आनंद धन-स्वरूप ॥ तुम ॥३॥ (२८०) त्रिभुवनमें नामी, कर करना जिनस्वामी ॥ त्रिभुवनमें° ॥टेका। चहुंगति जन्म मरनकिम भाख्यो, तुम सब अंतर जामी ॥ त्रिभुवनमें ॥१॥ करमरोगके वैद तुमहि हो, करों। * पुकार अकामी । त्रिभुवन में ॥२॥ द्यानत पूरव-पुण्य-उदयते । सरन तिहारी पामी । त्रिभुवनमें ॥३॥ * --- ------ *

Loading...

Page Navigation
1 ... 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410