Book Title: Vruhhajain Vani Sangraha
Author(s): Ajitvirya Shastri
Publisher: Sharda Pustakalaya Calcutta
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१५०८ वृहज्जैनत्राणीसंग्रह।
नहिं होत हम, होहिंगे क्यों पार ॥ प्रभुजी ॥१॥ एक गुनथुति कहि सकत नहि, तुम अनंत भंडार । भगति तेरी। बनत नाही, मुकतिकी दातार प्रभुजी ॥२ ॥ एक भवके * दोष केई, थूल कहूं पुकार। तुम अनंत जनम निहारे, दोष । * अपरंपार ॥प्रभुजी०॥ नाम दीनदयाल तेरो, तरनतारनहार । वंदना द्यानत करत है, ज्यों वनै त्यों तार |प्रभुजी०॥
३०२-गग आसावरी जोगिया ताल धीमो तेतालो। । करम देत दुख ओर, हो साइयां ॥ करम ॥टेक ॥ कई
परावृत पूरन कीने, संग न छांडत मोर, हो साइयां ॥ * करम ॥१॥ इनके वश मोहि बचाओ, महिमा सुनि अति ।
तोर, हो साइयां ॥करम ॥२॥बुधजनकी विनती तुमहीसों, * तुमसो प्रभु नहिं और, हो साइयां ॥करम ॥३॥
३०३-राग-गारो कान्हरो। थांका गुण गास्यांजी आदिजिनंदा ॥ थांका ॥टेक वचन सुण्या प्रभु मनै, म्हारा निजगुण भास्यांजी ॥आदि। * ॥१॥ म्हांका सुमन-कमलमें निसदिन, थांका चरन वसा-1 कस्यांनी आदि०॥२॥ याही मूनै लगन लगी छै, सुख द्यो ।
दुःख नसास्यांजी आदि ॥३॥ बुधमन हरख हिये अधिकाई, शिवपुरवासा पास्यांजी आदि० ॥४॥
३०४-दौलतगमजीकृत शास्त्रस्तुति । जिनबैन सुनत, मोरी भूख भगी ॥ जिनवैन टिका कर्मस्वभाव भाव चेतनको, भिन्नपिछानन सुमति जगी।। *K
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