Book Title: Vruhhajain Vani Sangraha
Author(s): Ajitvirya Shastri
Publisher: Sharda Pustakalaya Calcutta

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Page 392
________________ - 52 - *-* RA K AR* MAnnoAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAA वृहज्जैनवाणीसग्रह ५११ । जिन ॥३॥ शुक्लाग्निको प्रजालक, वसुकर्मवन जारा। ऐसे गुरुको दौल है, नमोस्तु हमारा। जिन ॥४॥ (३११) * पनि जिन यह, भाव पिछाना । पनि ॥टेका। तनव्यय वांछित प्रापति मानी, पुण्य उदय दुख जाना । घनि ॥१॥ एक विहारि सकल-ईश्वरता, त्याग महोत्सव माना। सब । सुखकों परिहार सार सुख, जानि रागरुष भाना। धनि चित्स्वभावको चिंत्य प्रान निज, विमल-ज्ञान-दृगसाना। * दौल कौन सुख जान लह्यो तिन, कियो शांतिरस पाना ॥ । धनि ॥३॥ ३१२ भावन। कबधों मिलै मोहि श्रीगुरु मुनिवर, करि हैं भवोदधि* पारा हो । कवधों ॥टेका। भोगउदास जोग जिन लीनो, * छोडि परिग्रह-भारा हो । इद्रियदमन वमनमद कीनो, विष-1 यकषायनिवारा हो । कवधों ॥१॥ कंचन काच बराबर जिनक, निंदक बंदक सारा हो । दुद्धर तप तपि सम्यक निजधर, मनवचतनकर धारा हो । .बधों ॥२॥ ग्रीषमगिरि । हिम सरितातीरे, पावस तरुतर ठारा हो । करुणा भीन चीन सथावर, ईर्यापंथ समारा हो । कवधों ॥३॥ मार-मार। । व्रतधार शीलदृढ, मोहमहामल टारा हो । मास मास उपपवास वास बन, प्रासुक करत अहार हो । कबधों ॥४॥ + आरतरौद्रलेश नहिं जिनकै, धर्म शुक्ल चितधारा हो। ध्याना

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