Book Title: Vruhhajain Vani Sangraha
Author(s): Ajitvirya Shastri
Publisher: Sharda Pustakalaya Calcutta
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'बृहज्जैनवाणीसंग्रह
५२६
पाया दुख गंभीर | क्या तुम जानत नांहिं जिनेश्वर मैं सही भवपीर ॥ ऋषभ ॥ मिथ्यादेव कुगुरुकी सेवा करि हुआ दिलगीर । भाग्य उदय अब जानो मेरा प्रभु देखी तसवीर ॥ ऋषभ ॥ शांत हुआ लखि ऋषभ सुमुद्रा कर्म कटी जंजीर । तारि सुनिश्चय 'कुंज' इसीसे शरण गही तुव वीर॥ऋ० ३५: - शांतिनाथस्तवन
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श्री शांति सुखकरा प्रभु शान्ति जिनवरा, देउ शांति मोय स्वामी अर्ज सुन जरा ||टेक || श्रीजिनके चरणारविंद में जल अरपूं भवनाशन काज | चंदन भव आताप मिटावन घसि अरपों निज सुखके काज | शांति शुभकरा || श्री० ॥ अक्षत प्रभु चरणोंपर खेऊं अक्षय निजपद पावन सार । पुष्प काम विध्वंसकरन हित श्रीजिन अग्र घरों सुखकार । मोद मन धरा ॥ श्री शांति० ॥२॥ क्षुधारोगनाशनंके कारण चरु नित धरूं जिनेश्वर पांय । दीप चढाऊं प्रभुके आगे ज्ञान -ज्योति याते प्रगटाय | मोहतम हरा ॥ श्रीः ॥ धूप कर्म व कर्म नाश हित फल अरपूं इच्छित फलदाय | अर्घ मिलाय घरों जिन आगे यातें 'कुंज' सुकति पद पाय ॥ सर्व दुखहरा || श्री शांति० ॥४॥
३५७ - प्रभुदर्शावसर ।
प्रभू तोड़ लखि पायौ रे, अबकी बार ॥ टेक ॥ देखि सुमूरति, हे त्रिभुवनपति, क्रोध मोह विछुटायौ रे ॥ अबकी बार० ॥ भाव दरशका, श्री जिनवरका । दिल विच आज

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