Book Title: Vruhhajain Vani Sangraha
Author(s): Ajitvirya Shastri
Publisher: Sharda Pustakalaya Calcutta

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Page 391
________________ RAA ANAANAANAAAAAMANRArAnn Honaar awan ....... ..... * *- --- - १५१० बृहज्जैनवाणीसंग्रह क चंदसर हू दूर करें नहि, अंतर तमकी हानी ।वे॥ १॥ पच्छ । । सकल नय भच्छ करत हैं, स्यादवादमें सानी ।। वे ॥२॥ र धानत तीन भवन मंदिर में दीवट एक बखानी ॥ ३० ॥३॥ ३०८-राग धनाश्री। * जिनवानीको को नहिं तारे । जिनवानी ॥ टेक ॥ मि थ्यादृष्टी जगत निवासी, लहि समकित निजकाज सुधारे।। गौतम आदिक श्रुतके पाठी, सुनत शब्द अघ सकल निवारे जिनवानी ॥१॥ परदेशी राजा छिनवादी, भेद सु तत्त्व। भरम सब टारे । पंच महाव्रत धर तू भैया, मुक्तिपंथ मुनि* राज सिधारे । जिनवानी ॥२॥ ३६-राग-ठुमरी मिझोटी। जिनधुनि सुनि दुरमति नसि गईरे, नय स्यादवादमय है आगममें ।।टेका विभ्रम सकल तत्त्व दरसावत, यह तो भविजनके मन वशगईरे । नयः ॥ चिर-भ्रम-ताप-निवारण* कारण, चंद्रकलासी दरसगईरे । नया२।। अघमल पावनकारण 'मानिक' मेघघटासी वरसि गईरे । नय ॥३॥ ३१०--रेखता। जिन रागरोप त्यागा वह सतगुरू हमारा ॥जिन गाटेक तज राजरिद्ध तृणवत, निज काज संभारा । जिन ॥ १ ॥ * रहता वह वन खंडों, धरि ध्यान कुठारा। जिन मोह महा तरुको, जडमूल उखारा। जिन॥२॥ सर्वांग तज परिग्रह दिग अंबर धारा । अनंतज्ञान गुणसमुद्र, चारित्रभंडारा। * * *

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