Book Title: Vruhhajain Vani Sangraha
Author(s): Ajitvirya Shastri
Publisher: Sharda Pustakalaya Calcutta
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वृहज्जैनवाणीसंग्रह ४ नेमि० ॥२॥जाहि सुरासुर नमत सतत, मस्तकतै परस। 1 मही। सुरगुरु-वर-अंबुज-प्रफुलावन, अदभुतभान सही ॥
नेमि० ॥३॥ धर अनुराग विलोकत जाको, दुरित नसैं सब * ही । दौलत महिमा अतुल जासकी, कापै जात कही।।नेमि०,
( २६६ ) प्रभु.मोरी ऐसी बुधि कीजिये, रागदोष दावानलसे बच । । समतारसमें भीजिये ॥ प्रभु० ॥ टेक ।। परमें त्याग अपनपो । निजमें, लाग न कबहू छीजिये । कर्मकर्मफलमांहि नराचत ज्ञानसुधारस पीजिये ॥प्रभु० ॥१॥ सम्यग्दर्शन ज्ञानचरननिधि, ताकी प्रापति कीजिये । मुझ कारजके तुम बड़कारन, अरज दौलकी लीजिये ॥ प्रभु० ॥२॥
( २७७ ) है और अबै न कुदेव सुहावै, जिन थांके चरनन रति जोरी॥ * और ॥१॥ काम-कोह-वश गर्दै असन असि, अंक* निशक धरै तिय गौरी । औरनके किम भाव सुधार, आप
कुमाव-भार-धरधोरी ॥ और० ॥१॥ तुम विनमोह अकोहछोहविन, छके शांतरसपीय कटोरी । तुम तज सेय अमेय ।
भरी जो, विपदा जानत हो सब मोरी ॥और०॥२॥ तुम तन। * तिन्हैं भजै शठ जो सो, दाख न चाखत खात निबोरी । हे। जगतार उधार दौलको,निकट विकट-भवजलधि हिलोरी।और।
२७१-राग धनश्री। प्रभु थांको लखि मम चित हरपायो ॥ टेक ॥ सुंदर चिंता*-
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