Book Title: Vruhhajain Vani Sangraha
Author(s): Ajitvirya Shastri
Publisher: Sharda Pustakalaya Calcutta
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१५२ वृहज्जैनवाणीसंग्रह * सोयौ । सोयौ अनादि निगोदमै जिय, निकर फिर थावर • भयौ, भू तेज तोय समीर तरुवर, थूल सूच्छमतन लयौ ।
कृमि कुंथु अलि सैनी असैनी व्योम जल थल संचरयौ । । पशुयोनि वासठलाख इसविध, भुगति मर मर अवतरयौ ।। * अति पाप उदय जब आयौ । महानिंद्य नरकपद पायौ ।।
थिति सागरोंबंध जहां है । नानाविध कष्ट तहां है। है त्रास • अति आताप वेदन, शीत बहुयुत है मही। जहां मार मार ।
सदैव सुनिये, एक क्षण साता नहीं ॥ मारक परस्पर युद्ध । ठान, असुरगण क्रीडा करै । इहविधि भयानक नरकथानक । * सह जी परवश परें ।। ३॥ मानुषगतिके दुख भूल्यो । बसि । के उदर अधोमुख झूल्यो। जनमत जो संकट सेयो। अविवेक । उदय नहिं बेयो । यो न कछु लघुवालवयमें, वंशतरुकों
पल लगी। दलरूप यौवन वयस आयौ, काम-दौं-तब उर
जगी ॥ जब तन बुढापो घटयो पौरुष, पान पकि पीरो । * भयो । झड़ि परयो काल-बयार वाजत, बादि नरभव यौँ ।
गयौ ॥४॥ अमरापुरके सुख कीने । मनवांछित भोग नवीने ॥ उरमाल जवै मुरझानी। विलप्यो आसन-मृतु जानी ॥ मृतु ।
जान हाहाकार कीनौं, शरन अब काकी गहौं । यह स्वर्ग-1 । संपति छोड अब मैं, गर्भवेदन क्यौं सहौं । तब देव मिलि।
समुझाइयो, पर कछु विवेक न उर बस्यो । सुरलोक-गिरिसों ।
गिरि अज्ञानी, कुमेति-कादौं फिर फँस्यो ॥५॥ इहविध इस । मोही जीनें । परिवर्तन पूरे कीनें ।। तिनकी बहु कष्टकहानी।।

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