________________
R-5-12-
४८७
AAAAAA
वृहज्जैनवाणीसंग्रह दोहा-माल भई भगवन्तकी, पाई संग नरिन्द ।
लालविनोदी उच्चरै सबको जयति जिनन्द ॥२४॥
माला श्री जिनराजकी, पावै पुण्य संयोग। ___ यश प्रगटै कीरति बढे, धन्य कहैं सब लोग ॥२५॥इति॥
२४८-धर्म पच्चीसी।। * दोहा-भव्य कमल रवि सिद्ध जिन, धर्मधुरन्धर धीर।
नयूं सदा जगतमहरण, नमूं त्रिविध गुरु वीर ॥ चौपाई-मिथ्याविषयनमें रत जीव । तातें जगमें भ्रमें सदीव ॥ विविधप्रकार गहे परजाय । श्रीजिनधर्म न नेक * सुहाय ॥२६॥ धर्म विना चढुंगतिमें फिरै। च रासीलख !
फिर फिर धरै ॥ दुखदावानलमाहिं तपंत । कर्म करै फल । भोग लहंत ॥३॥अति दुर्लभ मानुष परजाय। उत्तमकुल धन
रोग न काय ॥ इस अवसरमें धर्म न करै । फिर यह अव
सर कबको वरै ॥४॥ नरकी देह पाय रे जीव । धर्म विना * पशु जान सदीव ।। अर्थ काममें धर्म प्रधान । ता बिन अर्थ । * न काम न मान ॥ ५॥ प्रथम धर्म जो करै पुनीत । शुभ। संगति आवै कर प्रीति ॥ विघ्न हरे सव कारज सरै। धन। सो चारों कोने भरै ॥६॥ जन्म जरा मृत्यु वश होय । तिहूं।
काल जग डोलै सोय ॥ श्रीजिनधर्मरसायनपान । कबहुं। * न रुचि उपजै अज्ञान ॥ ७॥ज्यों कोई मूरख नर होय।। * हलाहल गहै अमृत खोय ॥ त्यों शठ धर्मपदारथ त्याग।
विषयनसों ठानै अनुराग ॥ ८॥ मिथ्यागृहगहिया जो ।