Book Title: Vruhhajain Vani Sangraha
Author(s): Ajitvirya Shastri
Publisher: Sharda Pustakalaya Calcutta
View full book text
________________
* *
*
** * । वृहज्जैनवाणीसंग्रह मोहि । जामों तनु निरोग अब होहि ॥१६॥ दयावंत बोले। * मुनिराय । सुन पुत्री व्रत चित्त लगाय॥ समताभाव चित्तमें
धरो। तुम सुगंधदशमी व्रत करो ॥१७॥ यह व्रत कीजै
मनवचकाय । यासों रोग शोक सब जाय ॥ दुगंधा विनवै । * मुनि पाय । कहिये सविधि महामुनिराय ॥१८॥ ऐसे वचन
सुने मुनि जबै । तब बोले पुत्री सुन अवै ॥ भादों शुक्लपक्ष। जब होय । दशमी दिन आराधो सोय ॥ १९॥ पंचामृतकी धारा देव । मनमें राखो श्रीजिनदेव।। शीतल जिनकी पूजा
करो। मिथ्या मोह दूर परिहरो॥ ॥२०॥ व्रतके दिन छोड़ो। ! आरंभ। यासों मिटै कर्मका दंभ ॥ याके करत पाप छय
जाय । सो दश वर्ष करो मनलाय ॥२१।। जब यह व्रत संपूरन होय। उद्यापन कीजै चित जोय ॥ दश श्रीफल अमृत-" फल जान । नीबू सरस सदा फल आन ॥ २२ ॥ दश दीजै । पुस्तक लिखवाय । इह विधि सब मुनि दई बताय ॥ विधि। सुन दुर्गंधा व्रत लयो। सब दुर्गध ततच्छिन गयो ॥ २३॥ व्रतकर आयु जो पूरण करी । दशवें स्वर्ग भई अप्सरी ॥ जिनचैत्यालय वंदन करे । सम्यकभाव सदाउर धरै ॥२४॥
भरतक्षेत्र महँ मध्य सुदेश । भूतितिलकपुर बसै अशेष ॥ * राजा महीपाल तहँ जान । मदनसुंदरी त्रिया वखान ॥२५॥ । दशवें दिवसों देवी आन । ताके पुत्री भई निदान ॥ मद
नावती नाम धर तास । अति सुरूप तनु सकल सुवास * ॥२६॥ बहुत बात को करै वखान। सुरकन्या मान्यो । *2 --2- - --- - - *

Page Navigation
1 ... 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410