Book Title: Vruhhajain Vani Sangraha
Author(s): Ajitvirya Shastri
Publisher: Sharda Pustakalaya Calcutta

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Page 370
________________ 夺个公众人 वृहज्जैनवाणीसंग्रह ४८१ माहिं विशेख || कन्याकाज दुष्टता घरी | विद्याबल बहु माया करी ||१३|| युद्ध रत्नशेखरसों करयो । बहुत परस्पर विद्याधन्यो || जीत रत्नशेखर तिसवार । पाणिग्रहण कियो व्यवहार ||१४|| मदनमञ्जूषा रानी संग | आयो अपने गेह असंग ॥ वज्रसेनको कर नमस्कार । मात तात मन सुक्ख EVM अपार ||१५|| एकदिना मंदिर - गिरयोग । पहुंचे मित्रसहित सब लोग || चारण मुनि बन्दे तिहि बार | सुन्यौ धर्म चित भयो उदार ||१६|| हे मुनि पूर्वजन्म संबंध। तीनोंके तुम कहो निबंध | तब मुनि कहैं सुनो चितधार | एक मृणानलनगर सुखकार ||१७|| नृपमंत्री इक तहँ श्रुतकीर्ति । बंधुमती वनिता अति प्रीति । एक दिना बन क्रीड़ा गयो । नारीसंग रमत सो भयो || १८ || पापी सर्प सो भक्षण करी । मंत्री मृतक लखी निज नरी ॥ भयो विरक्त जिनालय जाय । दिक्षा लीनी मन हर्षाय ॥ १९ ॥ यथाशक्ति तप कुछ दिन करो || पीछे भ्रष्ट भयो तप टरयो | गृह आरंभ करन चित उन्यो । तव पुत्री मुख ऐसे भन्यौ ||२०|| तात जु मेरु चढे किहि काज | फिर भवसिंधु पडे तज लाज ॥ यों सुन प्रभावती वचसार | मंत्री कोप कियो अधिकार ॥ २१ ॥ तब विद्याको आज्ञा करी । पुत्रीको ले वनमै धरी ॥ विद्या जब वनमैं ले गई । प्रभावती मन चिंता भई ॥ २२ ॥ अरहत भक्ति चित्तमें धरी । तब विद्या फिर आई खरी ॥ हे पुत्री तेरा चित जहां | वेग वोल पहुंचाऊँ तहाँ ||२३|| पुत्री 31

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