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बृहज्जैनवाणीसंग्रह
२२७ - बारह भावना जयचंदजीकृत ।
दोहा - द्रव्यरूपकरि सर्व थिर, परजय थिर है कौन । द्रव्यदृष्टि आपा लखो, पर्जय नयकरि गौन ॥१॥ शुद्धातम अरु पंच गुरु, जगमैं सरनों दोय | मोह उदय जियके वृथा, आन कल्पना होय ॥ २ ॥ परद्रव्यनतै प्रीति जो, है संसार अवोध | ताको फल गति चारमें, भ्रमण कह्यो श्रुत शोध ||३|| परमारथर्ते आतमा, एक रूप ही जोग्र कर्मनिमित विकलप घने, तिन नासे शिव होय ॥ ४ ॥ अपने अपने सकूं, सर्व वस्तु विलसाय । ऐसें चितवै जीव तव, परतै ममत न थाय ||५|| निर्मल अपनी आतमा देह अपावन गेह | जानि भव्य निज भावको, यासों तजो सनेह ||६|| आतम केवल ज्ञानमय, निश्चय-दृष्टि निहार । सब विभाव परिणाममय, आस्रव भाव चिडार ॥७॥ निज स्वरूपमै लीनता, निश्चय संवर जानि । समिति गुप्ति संजम धरम, धेरै पापकी हानि ||८|| संवरमय है आतमा, पूर्व कर्म झड़ जाय । निज स्वरूपको पायकर, लोक शिखर जब थाय ||९|| लोक स्वरूप विचारिकै, आतम रूप निहार । परमारथ व्यवहार मुणि, मिथ्याभाव निवारि ॥१०॥ बोधि आपका भाव है, निश्चय दुर्लभ नाहि । भवमें प्रापति कठिन है, यह व्यवहार कहाहिं ॥ ११ ॥ दर्शज्ञानमय चेतना, आतमधर्म बखानि । दयाक्षमादिक रतनत्रय, यामैं गर्भित जान ॥ १२॥
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