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बृहज्जैनवाणीसंग्रह
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निजमांहि लोक अलोक गुन परजाय प्रतिबिंबित थये । रहि हैं अनंतानंतकाल यथा तथा शिव परनये ॥ धनि धन्य हैं जे जीव नरभव पाय यह कारज किया । तिनही अनादी भ्रमन पंचमकार तजि वर सुख लिया ॥ १३ ॥ मुख्योपचार दुभेद यों बड़भागि रत्नत्रय धरैं । अरु धरैगे ते शिव लहैं तिन सुजस जल जगमल हरै || इमि जानि आलस हानि साहस ठानि यह सिख आदरो । जबलों न रोग जरा गहै तबलों जगत निज हितकरो || १४ || यह राग आग दहै सदा तातै समामृत सेइये | चिर भजे विषय कषाय अब तौ त्याग निजपद बेइये | कहा रच्यो परपदमें न तेरो पद यहै क्यों दुख सहै । अब दौल, होउ सुखी स्वपद रचि दाव मत चूको यहै ॥ १५ ॥
दोहा - इक नवे वसु इक वर्षकी, तीज शुकल वैशाख । करच तच्च उपदेश यह, लखि बुधजनकी भाख ॥१६॥ लघुधी तथा प्रमादतें, शब्द अर्थकी भूल । सुधी सुधार पढो सदा, जो पावो भवकूल ॥ १७ ॥ इति श्री पं० दौलतरामजीकृत छहढाला समाप्त
२१४- अरहन्तपासा केवली ।
काशी निवासी कविवर बृन्दावनदासजी कृत । दोहा - श्रीमत वीर जिनेशपद, बन्दों शीस नवाय । गुरु गौतमके चरन नमि, नमों शारदा माय ॥ १ ॥ श्रेणिक नृपके पुण्यतें भाषी गणधर देव | जगतहेत अरहन्त यह, नाम