Book Title: Vivek Vilas Author(s): Shreekrushna Publisher: Aaryavart Sanskruti Samsthan View full book textPage 8
________________ बहुत त्रुटिपूर्ण थी। ऐसी अकेली मातृका से ग्रन्थ का सम्पादन सम्भव भी नहीं था। कुछ सन्तों से चर्चा तो कुछ से पत्राचार भी किया किन्तु अपेक्षित सफलता नहीं मिली। एक दिन मैंने कोबा (अहमदाबाद) स्थित कैलाशसागर सूरि ज्ञान मन्दिर को पत्र लिखा तो उत्तर मिला कि यह ग्रन्थ आगरा से छपा है, वहाँ से जो पता मिला, उस पर पत्र लिखा जो लौट आया। मैंने उक्त लौटा हुआ पत्र लेकर अपने एक परिचित को कोबा भेजा तो वहाँ से उक्त पाठ की छाया प्रति प्राप्त हुई-इस प्रक्रिया में लगभग चार वर्ष लग गए। इस पाठ में कई गड़बड़ियाँ थी, इसके प्रबन्धकर्ता की टिप्पणि थी 'इस ग्रन्थ में प्रेस की असावधानी तथा उस समय ग्रन्थ की छपाई का कार्य जबकि आगरे में महाभयानक संक्रामक इन्फल्यूएंजा ज्वर का प्रकोप था, प्रबन्ध में गड़बड़ हो जाने के कारण यत्र-तत्र अशुद्धियाँ रह गईं...।' इसके श्लोक तो अशुद्ध छपे ही, श्लोकों की पुनरुक्ति भी हुई, कहीं के श्लोक कहीं लग गए। कुल मिलाकर चार पाठों से इस ग्रन्थ का उद्धार सम्भव हो सका। न जाने क्यों मैं इसके सम्पादन का सङ्कल्प कर चुका था। अज्ञात प्रेरणाओं ने बल दिया और कम्प्यूटर पर पाठ, अर्थ आदि तैयार कर इसकी भूमिका की तैयारी की तो इसके श्लोकों के साथ-साथ ही पाद टिप्पणियाँ लिखता गया। बाद में यह सोचा कि यदि टिप्पणियों को अलग निकालकर इसकी विषय-वस्तु की तुलना ही करता चला गया तो यह ग्रन्थ मूल से कहीं अधिक बृहत्काय हो जाएगा और इसमें समय भी पर्याप्त लगेगा। इसी बीच यह प्रेरणा भी मिली कि जितना और जिस रूप में हो गया, उसे लोक-करकमलों में सौंप दिया जाए, इसी रूप की आवश्यकता है...। सच कहूँ तो मैं शुरू-शुरू में इसे केवल वास्तु-शिल्प का ग्रन्थ ही समझ रहा था किन्तु जब कार्य आरम्भ करने बैठा तो यह पूरा संहितात्मक ग्रन्थ निकला, एक नई पूरे शताधिक विषय। यह अच्छा ही था कि ज्योतिष की संहिताओं और पुराणधर्मशास्त्र पर मेरी पूर्व में ही न्यूनाधिक रुचि थी। अर्थ के साथ-साथ सन्दर्भो का आलोक होता चला गया, जहाँ कहीं श्लोक कम लगे वहाँ अन्य ग्रन्थों से श्लोक उद्धृत किए गए- प्रस्तुत पाठ इसी श्रम की देन है। मैंने इस सन्दर्भ-श्रम की आवश्यकता इसलिए भी मानी कि इस विस्तार के अभाव में न तो जिनदत्तजी की विद्वता का मूल्याङ्कन होगा और न ही इस ग्रन्थ के गाम्भीर्य और विराट वैभव की कल्पना हो सकेगी। रचना के लगभग साढ़े छह सौ वर्षों बाद विवेकविलास को न केवल अर्थ वरन चित्र सहित नानाङ्गों से परिपूर्ण कर प्रकाशन का यह प्रयास किया जा रहा है। viPage Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 ... 292