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उववाइय सुत्त
उसके आस-पास लम्बी दूर तक सैकड़ों-हजारों अथवा लाखों १००x१००० लाखों हलों के द्वारा जोतने और बोने से सुन्दर और योग्य बनी हुई एवं मार्ग रूप सीमा से युक्त भूमि थी। उस नगरी में मुर्गों
और तरुण साण्डों के बहुत-से समूह थे। ईख, जौ और शालि से लहलहाती हुई वहाँ की भूमि भली लगती थी। गायों, भैंसों और भेड़ों की अधिकता थी।
विवेचन - १. उववाइय-औपपातिक सूत्र में उपपात-वैक्रिय शरीरधारी नारक और देव में जन्म और सिद्धि-गमन के विषय में प्रश्नोत्तर हुए हैं। यह उपांग है। आचारांग सूत्र के सत्थपरिण्णा (शस्त्र-परिज्ञा) नामक पहले अध्ययन के पहले उद्देशक के 'एवमेगेसिंणो णायं भवइ, अत्थि मे आया उववाइए....' इत्यादि सूत्र में आत्मा के जिस उपपात भाव का निर्देश किया गया है, उसका इस अध्ययन में विस्तार किया गया है। अतः इस आशय की समीपता के कारण, यह आचारांग का उपांग कहा जाता है।
ऐसी धारणा प्रचलित है कि अंग के किसी एक विषय को लेकर, जिसमें विस्तार से उसकी व्याख्या की गयी हो, उसे उपांग कहते हैं। विभिन्न उपांगों का सम्बन्ध अंगों के साथ जोड़ा जाता है। इस बात की पुष्टि टीकाकार के उपर्युक्त कथन से भी होती है।
२. 'उस काल...उस समय.....' वर्तमान अवसर्पिणी काल के चौथे आरे के सामान्यकाल को 'उस काल' और जिसमें वह नगरी, राजा और परम तारक वर्धमान स्वामी विद्यमान थे, उस विशेष काल को 'उस समय' कहा गया है।
३. ........नगरी थी' - जिस समय इस सूत्र का निर्माण हुआ था, उस समय में भी चम्पा नगरी विद्यमान थी, फिर भी '........नगरी थी' - ऐसा भूतकालिक प्रयोग क्यों किया गया? कारण, अवसर्पिणीकाल हीयमान काल की अपेक्षा से। क्योंकि जिस काल की कहानी कही जा रही हैउस काल की विभूति के समान, जिस समय में कहानी कही जा रही है-उस में वह विभूति नहीं थी।
कालद्रव्य के निमित्त से द्रव्यों की अवस्था में सदा परिवर्तन होता रहता है। वस्तु क्षण मात्र भी एक-सी अवस्था में नहीं रह सकती। कुछ क्षणों के पहले ही घटित प्रसंगों के लिये भूतकालिक क्रिया का प्रयोग ही इस बात को सिद्ध कर रहा है। अत: द्रव्य की यह परिभाषा बिलकुल सही है कि 'जो अपने सनातन गुणों में स्थित रहते हुए, नई-नई अवस्थाओं को धारण करे या पर्यायों में गमन करे।'
४. 'सैकड़ों-हजारों हलो....' इस सूत्रांश - नगरी की लोक-बहुलता और क्षेत्र-बहुलता
बतलाई गई है।
टीकाकार ने इस सूत्रांश के दो अर्थ-विकल्प और दिये हैं -
'लाखों हलों के द्वारा खेड़ी हुई......नहरों के द्वारा सिञ्चित क्षेत्र भूमि जिसकी सीमा में हो ऐसी' अथवा '....खेड़ने से दूर तक मनोज्ञ बनी हुई कही गई है सेतुसीमा जिसकी ऐसी।'
५. 'मुर्गों और....' इस सूत्रांश से मनुष्यों का प्रमोद व्यक्त किया गया है। क्योंकि प्रमुदित लोग ही क्रीड़ा के लिये कुक्कुटों का पोषण करते हैं और साण्डों का सांड रूप में पालन करते हैं।
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