Book Title: Uttaradhyayanani Part 03 And 04
Author(s): Bhavvijay Gani, Harshvijay
Publisher: Vinay Bhakti Sundar Charan Granthmala
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उतराध्य
यनसूत्रम्
॥१०४॥
शेषं व्यक्तमिति सूत्रषट्कार्थः ॥ ६ ॥ रसानाह—
मूलम् -- जह कडुअतु बगरसो, निंबरसो कडु अरोहिणिरसो वा । एत्तोवि अांतगुणो, रसो उ किरहाइ नायव्व ॥१०॥ जह तिकडुस्स य रसो, तिक्खो जह हत्थिपिप्पलीए वा । एत्तोवि अांतगुणो, रसो उनीलाइ नायव्वो ॥११॥ जह तरुण अंबगरसो, तुबरकविट्ठस्स वावि जारिस । एत्तोविश्रांतगुणो, रसो उ काऊइ नायव्वो ॥१२॥ जह परिणयंबगरसो, पक्ककविट्ठस्स वावि जारिस तेऊइ नायव्वो ॥१३॥ वरवारुणीइ व रसो, विविहाण व भासवाण जारिस पम्हाए परएणं ॥१४॥ खज्जूरमुद्दियरसो, खीररसो खंडसक्कररसो वा । एत्तोवि अांतगुणो, रसो उ सुक्काइ नायव्व ॥ १५॥
।
एतोवि अांतगुणो, रसो उ
। महुमेरगस्स व रसो, एत्तो
व्याख्या—यथा कटुकतुम्बकरसो निम्बरसः कटुकरोहिणी - त्वग्विशेषः तद्रसो व यथेति सर्वत्र योज्यम् । इतोप्यनन्तगुणोऽनन्तसंख्येन राशिना गुणितो रसस्तु कृष्णाया ज्ञातव्यः ॥ १० ॥ ' त्रिकटुकस्य' शुण्ठीपिपलीमरिचरूपस्य, 'हस्तिपिप्पल्या ' गजपिप्पल्या ॥ ११ ॥ तरुणम् अपक्वं आम्रकम् आम्रफलं तद्रसः, तुबरं सकषायं यत् कपित्थं कपित्थफलं तस्य वापि यादृशको रस इति प्रक्रमः ॥ १२ ॥ यथा परिणताम्रकरसः किञ्चिदम्लो मधुरश्चेति भावः ॥ १३ ॥ वरवारुणी - प्रधानमदिरा तस्या वा यादृशक इति सम्बन्धः, विविधानां वा
अध्य० ३४
॥ १०४ ॥

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