Book Title: Uttaradhyayanani Part 03 And 04
Author(s): Bhavvijay Gani, Harshvijay
Publisher: Vinay Bhakti Sundar Charan Granthmala
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यनसूत्रम् ॥१४८॥
का पुनस्ता इस्याह-'स्यणाभत्ति' रत्नानां रत्नकाण्डस्थितानां भवनपतिभवनस्थानां च प्रामा प्रभा यत्र सा रत्नामा १ एवं सर्वत्र शर्करामध्य०३६ लघुपाषाणखण्डरूपा तदाभा २ वालुकामा ३ पङ्कामा ४ धूमामा तत्र धूमाभावेऽपि तत्तुल्यपुद्गलपरिणामसम्भवात् ५ 'तमति' तमप्रमा ॥१४॥ तमोरूपा ६ तमस्तमःप्रभा महातमोरूपा ७ ॥१५७ ॥ लोकैकदेशे अधोलोकरूपे ॥१५८ ॥ मूलम्—सागरोवममेगं तु, उक्कोसेण विभाहिआ। पढमाए जहएणेगां, दसवाससहस्सिा ॥१६०॥
तिगणेव सागराऊ, उक्कोसेण विभाहिआ। दोच्चाए जहणणेणं, एगं तु सागरोवमं ॥१६॥ सत्तेव सागराऊ. उक्कोसेण विमाहिआ। तइआए जहन्नेणं, तिपणेव उ सागरोवमा ॥१६॥ दस सागरोवमाऊ, उक्कोसेण विआहिमा। चउत्थीए जहन्ने, सत्तेव उ सागरोवमा ॥१६३॥ सत्तरस सागराऊ, उक्कोसेण विहाहिआ। पंचमाए जहन्नेणां, दस चेव उ सोगरोवमा ॥१६॥ बावीस सागराऊ, उक्कोसेण विश्राहिआ । छट्ठीए जहन्नेणं, सत्तरस सागरोवमा ॥१६५॥ तेत्तीस सागराऊ, उक्कोसेण विश्राहिमा । सत्तमाए जहन्नेणं, बावीसं सागरोवमा ॥१६६॥ जा चेव उपाऊठिई, नेरईआणं विनाहि । सा तेसिं कायठिई, जहण्णुकोसिमा भवे ॥१६७१ अणंतकालमुक्कोस, अंतोमुहुत्तं जहएणगं । विजढंमि सए काए, नेरइमाणं तु अंतरं ॥१६॥
JANNENANENAVATNENE

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