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तद् राज्यमादायि ममैव मातृ
सहोदरेण स्वबलावलेपात् । हा ! हा ! कियन्तो न भवन्त्यना,
मह्यर्थमेवं महिजानिमुख्य ! ॥ (ग) चतुर्थ अंक में विरहव्यथिता के रूप में उसका दर्शन होता है । राजा रत्नपाल का वियोग उसके लिए असह्य हो चुका है। वह प्रकृति के प्रत्येक पदार्थों से अपने प्रियतम का पता पूछती है --- अरे भाई ! सुनो! मेरे प्रिय के बारे में बता दो तो ! कान्तार को उलाहना देती हुई कुमारी का बिम्ब रमणीय बना है---कान्तार ! तुमने ही मेरे प्रियतम को छिपाया
विविध क्षेतकान्तार !
किं न ज्ञापयसे विश्वेशम् । प्रच्छन्नं त्वयि केवलबोध
मिव बद्धात्मास्वस्मिल्लीनम् ॥ सहकार से अपने प्रियतम के अन्वेषण में सहायक होने की कामना करती है । सहकार ! तुम्हारे योग से कोयल अपनी मधुर ध्वनि को प्राप्त कर लेती है, तो क्या मैं अपने पति को भी नहीं पासषंगी ?---
सहकार ! त्वं भव सहकारी,
कामितनिष्पत्तौ सम्पन्नः । कलरवमासादयति त्वतः
पिको न कि पतिमपि लप्स्येऽहम् ॥" कोमलाङ्गी राजसुता प्रियतम-विरह में भूमिपर शयन करती है जैसे यक्षिणी और पार्वती स्थण्डिल-शयन करती हैं। भूमि पर सोई हुई राजसुता का बिम्ब द्रष्टव्य है
राजसुता सुकुमारशरीरा,
या मृदुतल्पे शयिता नित्यम् । सा विपिने कठिने भूभागे,
सम्प्रति रागःकि नहि जनयेत् ॥२३ विरहिणियों की सभी अवस्थाएं इस कुमारी कन्या में संगठित होती हुई दिखाई पड़ रही हैं। विरह में स्वप्नदर्शन, पूर्वकृतस्मरण, चित्रदर्शन, प्रिय स्पृष्ट वस्तु का स्पर्श आदि मनोविनोद के प्रमुख साधन होते हैं। स्वप्न में आते हुए अपने प्रियतम को देखकर प्रफुल्लित मन से जग जाती है । कहां प्रियतम ? अब केवल विमूढावस्था ही शेष रहती है। इस रूप का वर्णन रोचक शैली में किया गया है
खंड १९, अंक ४
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