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और राज्य को शत्रु ने जीत लिया है,' वह अपने आत्मबल और अतिशायी विद्यावल के प्रभाव से उस राज्य को जीतकर युवति के पिता को सहर्ष दे देता है। इस अलभ्य चरित्र का रमणीय रूपांकन महाकवि के व्यक्तित्व के अनुरूप है। उदाहरण---
विद्याबलादात्मबलातिरेकाद्,
विजित्य तं राज्यमथो ददेऽस्मै । नैवोत्तमा लोभलवं स्पृशन्ति,
यतो न लोभात् परमस्ति पापम् ।।" (अ) जातिस्मृति ज्ञान से परिपूर्ण-राजा रत्नपाल संसार की लोभरूपता को विचारकर रात्री-शयन करता है। क्या मैं सदा एक रूप हूं अथवा विविध रूपावाला? इस प्रकार निरन्तर वितर्कणा करने पर उसे मतिज्ञान का प्रकृष्ट रूप जाति-स्मृति ज्ञान प्राप्त हुआ--
तत्राहमेवापि किमेकरूप,
एवाऽभवं वा विविधात्मरूपः । वितर्कयन्नित्यविराममेष,
जातिस्मृति प्राप मति प्रकृष्टाम् ।।२ (ट) पूर्व जन्म का बिम्ब--जातिस्मृति ज्ञान के बाद उसे अपने पूर्व भव की स्मृति आ जाती है । पूर्वजन्म में वह एक दरिद्र ब्राह्मण था। मुनिदर्शन से भावित हुआ । महामंत्र के प्रभाव से इस जन्म में राजा के रूप में उत्पन्न हुआ
मन्त्रस्य सोऽय महिवाऽवगम्यो,
___ जातः स एवाहमिलेश सूनुः । श्रद्धानुरूपा मनुजस्य जाति
स्तच्छ्रद्धया पावनया हि भाव्यम् ॥3 (ठ) अनिश्चित पथ का यात्री-चतुर्थ सर्ग में रात्री के साथ वार्तालाप करते हुए राजा का दर्शन होता है। वह रात्री के अन्धकार रूप को कोशता है, परन्तु रात्री तर्क सम्मत उत्तर देती है । रात्री के ये पद किआश्चर्य ! मनुष्य कितना अविवेकी है, मेरे अन्धकार को दीप जलाकर दूर करना चाहता है, लेकिन अपने मन के अन्धकार को मिटाना नहीं चाहता; सुनकर राजा संसार से निर्वेद को प्राप्त करता है अनन्त-पथ की ओर प्रस्थान कर जाता है, क्योंकि विरक्त व्यक्तियों का यही शुभक्रम होता है
चकितविस्मितचित्त इलापति,
स्तत इयाय पथाऽव्यवसायिना। विरतचेतसः एष शुभः क्रमो,
न पवनो नियतं व्रजति क्वचित् ॥"
खण्ड १९, अंक ४
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