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(१) एनीमल ब्रेन । (२) लिम्बिक ब्रेन | (३) नियो कार्टेक्स
मनुष्य की पाशविक वृत्तियों का संबंध एनीमल ब्रेन से है । मस्तिष्क की इस परत के आधार पर मनुष्य और पशु की वृत्तियों में कोई भेदरेखा नहीं खींची जा सकती । लिम्बिक ब्रेन के विकास ने मनुष्य को पशु से उच्च श्रेणी में स्थापित किया। उसकी चेतना नियंत्रण की भूमिका पर आरोहण कर गई । वह अपनी पाशविक वृत्तियों पर नियंत्रण कर सकता है, अतिमानव बन सकता है । शरीर विज्ञान ने हाइपोथेलेमस का प्रतिपादन कर नियंत्रण के सूत्र दिए । उनका उपयोग कर आज का मानव सहज ही योगी बन सकता है, अपनी वृत्तियों का रूपांतरण कर सकता है, पाशविक प्रवृत्तियों से ऊपर उठकर अपराधी मनोवृत्ति से बच सकता है।
आश्चर्यकारी प्रयोग किए
विज्ञान ने पदार्थ के रूपांतरण की दिशा में हैं । मानवीय स्वभाव को बदलने में वह सफल नहीं हुआ । वैज्ञानिक युग में सुविधा के साधन बहुत विकसित हुए हैं, अपराध बढ़े हैं, आत्महत्या, आतंकवाद, मादक वस्तुओं के सेवन की प्रवृत्ति और तनाव - ये सब बढ़े हैं । क्या यह भोगवादी दृष्टिकोण की नियति है ? या और कोई कारण है ? इस नियति ने मानवीय चिन्तन को कुछ नया सोचने के लिए विवश किया है और वह चिन्तन ही पुनः मुड़कर देखने का बिन्दु बन गया है ।
आज का प्रबुद्ध व्यक्ति नई दिशा की खोज में है । वह नई दिशा हैअध्यात्म और विज्ञान का समन्वय । समन्वय का अर्थ है- - सत्य की खोज का दृष्टिकोण वैज्ञानिक रहे, केवल मानकर ही नहीं चलें, विश्वास को प्रयोग की भूमिका पर ले जाएं । अध्यात्म का मुख्य दृष्टिकोण यह है कि चेतना से संपृक्त विजातीय तत्वों / विकृतियों का विवेचन कर उसके विशुद्ध रूप को प्रकट किया जाए । अध्यात्म के क्षेत्र में काम करने वाले लोग सत्य की खोज पर अधिक बल दें, मैत्री की भावना को पुष्ट बनाए रखें। विज्ञान के क्षेत्र में काम करने वाले लोग मैत्री की भावना पर अधिक बल दें, सत्य की खोज को अहिंसा या मैत्री की भावना से विच्छिन्न न करें । यह नई दिशा का संकल्प इस धरती को जीने लायक बना सकता है ।
भौतिकवाद : अध्यात्मवाद
हमारा जीवन न केवल आत्मिक है और न केवल पौद्गलिक / भौतिक है । वह आत्मा और पुद्गल / भूत दोनों का योग है इसलिए आत्मा और पुद्गल के मध्य भेदरेखा खींचना सरल नहीं है । दर्शन के क्षेत्र में दो अवधारणाएं प्रचलित हैं । शंकर का अद्वैतवाद, बौद्ध दर्शन का विज्ञानवाद और
तुलसी प्रज्ञा
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