________________
दर्शन कर सकता है और आध्यात्मिक विज्ञान तथा वैज्ञानिक अध्यात्म की कल्पना की जा सकती है।
डॉ० दशरथसिंह ने आनुभविक स्तर पर विज्ञान और अध्यात्म को दो प्रकार के अलग-अलग तत्त्व , ज्ञान और मूल्य माना । परन्तु दोनों को एक दूसरे का पूरक कहा, विरोधी नहीं । उन्होंने बतलाया कि अध्यात्म और विज्ञान के संयोग से एक नई सभ्यता जन्म ले सकती है और धरती पर दिव्य जीवन संभव हो सकता है।
युवाचार्यश्री ने विज्ञान और अध्यात्म को मौलिक दृष्टि से एक ही माना क्योंकि दोनों का संबंध शुद्ध ज्ञान से है । अध्यात्म और विज्ञान दोनों में भेद और विकृति, प्रयोग और प्रयोजन के कारण होते हैं । अत: दोनों के बीच भेद-अभेद का निर्णायक, उद्देश्य और प्रयोग है। विज्ञान दोषी तब हो जाता है जब वह प्रिय और अप्रिय संवेदन के साथ जुड़ जाता है। अध्यात्म भी इन संवेदनों से जुड़ने के कारण दूषित हो जाता है। यदि विज्ञान मानव हित के लिए होता है तब वह आध्यात्मिक है। निरपेक्ष सत्य कुछ नहीं है । जिसे हम भाषा या तर्क के माध्यम से जानते हैं वे सब सापेक्ष हैं। निष्कर्ष के रूप में उन्होंने कहा कि अध्यात्म एक व्यापक तत्त्व है जो सबसे जुड़ा है। हर व्यक्ति जो प्रिय-अप्रिय संवेदन से ऊपर है-वह आध्यात्मिक है। हमें स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए प्रिय-अप्रिय संवेदनों से ऊपर उठ कर शुद्ध ज्ञान में प्रवेश करने के लिए प्रविधियो का विकास करना चाहिये । बुद्धि अन्तिम सत्य नहीं, सत्य का एक पड़ाव है । अध्यात्म का सम्बन्ध अतीन्द्रिय चेतना से है।
___ अन्त में उन्होंने अध्यापकों, वैज्ञानिकों, राजनेताओं एवं समाज के अन्य प्रबुद्ध लोगों से मन की भूमिका से ऊपर उठकर कार्य करने के लिए प्रयास करने का सुझाव दिया। अपने सह-अध्यक्षीय भाषण में पण्डित विश्वनाथ मिश्र ने देवभाषा में अपने विचारों को प्रस्तुत करते हुए बतलाया कि प्राचीन वाङ्मय में विज्ञान था परन्तु वह अध्यात्म के साथ जुड़ा था। आधुनिक विज्ञान अध्यात्म से अलग और स्वतंत्र है और अपने आप में उपयोगी है। इसे भस्मासुर होने से बचाने के लिए अध्यात्म का नियंत्रण चाहिये। डॉ० आर. पी. मिश्रा ने अपने अध्यक्षीय भाषण में विज्ञान और अध्यात्म को मिलाने वाली प्रविधियों पर चिंतन किया। उन्होंने बतलाया कि धार्मिक दोषों से मुक्ति के लिए साम्प्रदायिक निरपेक्षता की धारणा का विकास हुआ । साम्राज्यवाद और पूंजीवाद के दोषों के निराकरण के लिए समाजवाद आया । परन्तु जब तक सम्प्रदाय-निरपेक्षता के साथ अध्यात्म और नैतिकता का प्रवेश नहीं होता और समाजवाद के साथ सर्वोदय नहीं जुड़ता तब तक मानव का कल्याण नहीं हो सकता है। परन्तु यह एक समस्या है जिसके समाधान की दिशा में स्वामी विवेकानन्द, गांधी, आचार्यश्री तुलसी सभी ने अपने-अपने ढंग
४४
तुलसी प्रज्ञा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org