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से प्रयोग किये हैं और कर रहे हैं । इन्हीं प्रयोगों के मध्य विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय होगा। अध्यात्म और विज्ञान : परिसंवाद-संस्तुति
भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद दिल्ली और जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं द्वारा आयोजित त्रिदिवसीय (१०-१२ मई १९९३) परिसंवाद में विज्ञान और अध्यात्म के बीच बढ़ती हुई खाई को देखकर गम्भीर चिंता व्यक्त की गयी । एक संतुलित जीवन, समाज और मानवता के विकास के लिए तथा शांतिपूर्ण दिव्य विश्व के निर्माण के लिए, वैज्ञानिक वृत्ति और आध्यात्मिक दृष्टिकोण के समानान्तर विकास पर परिसंवाद में बल दिया गया। अध्यात्म और विज्ञान वस्तुतः एक में दो और दो में एक हैं। शुद्ध चेतना की दृष्टि से सब अध्यात्म ही हैं और उसकी अलग-अलग अनुभूति के रूप में विज्ञान । एक सत्य को समग्रता और सांश्लेषिक दृष्टि से देखता है तो दूसरा उसे विशिष्टता और विश्लेषणात्मक दृष्टि से समझने का प्रयास करता है और समग्र व्यक्तित्व के विकास के लिए दोनों प्रकार के मूल्यों को अपनाने की आवश्यकता होती है। अतः सभी विद्वानों ने एकमत से अध्यात्म और विज्ञान के स्वतंत्र अस्तित्व को मानते हुए उनके समन्वय का सुझाव दिया जो दुर्भाग्य से आज एक दूसरे से अलग होकर विश्व विनाश और व्यापक रूप से विकृतियों के कारण बन गये हैं । विद्वानों ने इस समन्वय को व्यावहारिक बनाने के लिए निम्नलिखित संस्तुतियां कीं---
१. चूंकि धर्म ने समाज में बहुत विकृतियां उत्पन्न की हैं और आज
वह मानव के लिए अनुप्रेरक शब्द नहीं रह गया है अत: "धर्म"
के बदले “अध्यात्म" शब्द का प्रयोग अधिक वांछनीय है। २. अध्यात्म के नाम पर चलने वाले कर्मकाण्ड की जड़ता, व्यक्तिवाद,
संसारविमुखता तथा अन्य विकृतियों से इसे मुक्त कर समाज की . विभिन्न संरचनाओं तथा सामाजिक कार्यक्रमों में इसका प्रवेश
होना चाहिये। ३. नैतिक और आध्यात्मिक चेतना का विकास, समग्र तथा मूल्यपरक
शिक्षा के माध्यम से अधिक सशक्त ढंग से किया जा सकता है। ४. अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय के लिए सामाजिक विशेषकर
अनौपचारिक लोक शिक्षण के माध्यमों का उपयोग किया जा
सकता है। ५. पर्यावरण की शिक्षा के द्वारा भी अध्यात्म और विज्ञान का समन्वय किया जा सकता है । गांधी की बुनियादी शिक्षा और आचार्य श्री
खंड १९, अंक १
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